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________________ सुखदुःख स्वोत्पादित ३५९ स्थिति लेकर रहने लगता है। वह सुखदुःख किसीका भी दीनदास नहीं रहता । सुखदुःखातीत साम्यावस्थामें रहना ही सच्चे सुखी बननेका एकमात्र मार्ग है। भौतिक सुख न भी मिल सके तब भी सुखी रहने लगना तथा भौतिक दुःख मिलने लगे तब भी अपने सामाधीन कर्तग्यमें बटल रहकर दुःख न मानना सखा सुख पाना है। जिस विचारशील मानवके पास सुखेच्छा और दुःखभीति न रही हो, वही सच्चा सुखी है । सुखदुःखातीत समताकी भावना ही शक्तिकी जननी है। अचिन्तितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् । सुखान्यपि तथा मन्ये दैवमत्रातिरिच्यते ॥ मनुष्य यह जाने कि जैसे अतर्कित दुःख देहधारियोंके पास जंगलमें अकस्मात आखडे होनेवाले भेडियोंके समान मनुष्य के पास भाखडे होते हैं इसी प्रकार सुख भी मनुष्य के पास जंगल में अकस्मात मिल जानेवाले कुछ कालके यात्री सुन्दर मृगोंके समान भाखडे होते हैं। इस घटनाचक्रमें देवकी वह मचितन्य गुप्ठ उदार इच्छा काम करती रहती है जिसकी ओर मूढ मानवका ध्यान ही नहीं जाता। सुखदुःख दोनों मनुष्यके सामने क्रम क्रमसे लाये और हटाये जाकर उसे यह सुझाव देना चाहते हैं कि “ यदि तुम्हें सच्चा सख पाना हो तो अपनी संसारयात्रामें हम कुछ कालके यात्रि. योंके बंधनमें मत आओ तभी सुखी रह सकोगे।" (सुखदुःख स्वोत्पादित ) मातरमिव वत्साः सुखदुःखानि कतारमेवानुगच्छन्ति ॥३९७॥ __सखदुःख माताके पीछे पीछे घूमनेवाले वत्सोंके समान कर्मरत व्यक्तिका अनुसरण किया करते हैं। विवरण- जैसे माता वत्सकी जननी है, इसी प्रकार मनुष्यों के कर्म भी सुखदुःख कहलानेवाले भौतिक सुफल कुफलोंके उत्पादक होते हैं। जहां कहीं कम होता है वहीं भौतिक सुफल कुफलोंके बन्धनमें फंसानेवाली
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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