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________________ गुणवान् पुत्रके लाभकी प्रशंसा ३४९ पुत्रलाभ है । जातिधर्मों, कुलधर्मों तथा संस्कृतियों की रक्षा सत्पुत्रोंसे ही होती है। ऐसे उदारपुत्र पाना संसारका सर्वोच्च लाभ है। मनुष्य के सिर जो पितृऋण नामक ऋण है वह समाजको योग्य, गुणी, ज्ञानी, महात्मा पुत्र देनेसे ही उतरता है और पिता ऋण-मुक्त होजाता है । वंश तथा वंशानुगत सदाचारों की परम्पराका संरक्षण और उस परम्पराका संशोधन परिवर्धन तथा संस्करण सुपुत्रोंसे ही होता है। ( अधिक सुत्र ) प्रायेण हि पुत्राः पितरमनुवर्तन्ते। साधारण नियम तो यही है कि पुत्र पिताके ही जीवनाचारके अनुकूल बनजाते हैं। विवरण-- पुत्र पाय: पिताके ही चरि बसे चरित्र सीखते हैं। इसी. लिये पुत्र के सामने मनुष्यताका आदर्श रखना पिताका ही उत्तरदायित्व है। मुपुत्रका पिता बनना ही पितृत्वकी सार्थकता है। यादृशेः सन्निविशते याद्दशांश्चोपसेवत । याद्दगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ॥ (विदूर ) मनुष्य जनों के संपर्क में उठता बैठता, जिनकी श्रद्धासे उपालना करता और स्वयं जैसा बनना चाहता है वैसा बन जाता है । कुछ पुत्र पिताके विपरीत लच्छे बुरे भाचरण समाज में से सीखते हैं । अच्छे पिताकी बुरी सन्तति तथा बुरे पिताकी अच्छी सन्तति यद एक कादाचित्क घटना है। गुणी पिताके अविनीत अज्ञानी पुत्र पिताकी जीवननीतिले विपरील चलकर अपयश तथा दुःख भोगते हैं। विद्या, विनय तथा धर्मसे सम्पन्न पुत्र अपने धार्मिक पिताके आदेश तथा आदर्शका अनुसरण करते हैं। येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः । येन यायात् सतां मार्ग तेन गच्छन्न रिप्यत ।। मनुष्य पिता-पितामह जिस भद्रमार्गसे यात्रा कर के यश और सुख
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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