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________________ पिताका स्वर्ग ३४३ चक्रः सेव्यो नृपः सेव्यो न सेव्यः केवलो नृपः । पश्य चक्रस्य माहात्म्यं मृत्पिण्डः पात्रतां गतः ॥ राजाके चक्र (कार्यकर्ता = अमले ) और राजा दोनों को प्रसन्न रखना चाहिये । चक्रका माहात्म्य देखो कि मपिण्ड भी उसकी कृपासे पात्र बन गया । तात्पर्य यह है कि राजाकी कृपाके पात्र बननेके इच्छुकों को राज्यके कार्यकर्ताओं तथा राज्य में प्रभावशाली हाथ रखनेवालों को भी रुष्ट करने. वाला कोई काम न करना चाहिये। पाठान्तर- राजपुरुषैः सह संबन्धं कुर्यात् ।। राजदासी न सेवितव्या ।।३७९।। राजपरिचारिकाओंके व्यक्तिगत संपर्क में नहीं आना चाहिये। न चक्षुषापि राजानं निरीक्षेत् ॥ ३८०॥ आंखसे राजाको न देखे । यह पाठ युक्तिहीन होनेसे अपपाठ है। (राजधन अग्राह्य ) ( अधिक सूत्र ) न चक्षुषापि राजधनं निरीक्षेत् । राजधनके हरण तथा ग्रहणकी तो बात ही क्या ? इस भाव. नासे राजकोशकी ओर आंखोसे भी न देखे, उसकी ओर सतृष्ण दृष्टि तक न डाले, और ऐसा करके राजपुरुषोंको अपने संबन्ध शंकालु न बना ले । राजधनपर लोभ न करे । (पिताका स्वर्ग ) पुत्रे गुणवति कुटुम्बिनः स्वर्गः ॥ ३८१ ॥ पुत्रके सदाचारी तथा गुणवान् होनेपर पिताको अनुपम सुख होता है। विवरण-पिताको अपनी सन्तानकी पवित्रतासे जितनी ठंडक पडती है उससे अधिक मन्य किसी बातसे नहीं। किसीके भाग्योदय होने पर ही
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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