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________________ चाणक्यसूत्राणि निष्कारणे धर्मः षडंगो वेदोऽध्येयो शेयश्चेति" षडंगवेदका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना ब्राह्मणका महैतुक कर्तव्य है। वेदज्ञानके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं बन सकता। मानव बननेका जो रहस्य है वही वेदज्ञान है। ( कर्तव्यपालन मानवमात्रका अहंकार ) सर्वेषां भूषणं धर्मः ॥३६७॥ सत्यनिष्ठा या स्वकर्तव्यपालन ही मनुष्यमात्रका भूषण है। सत्य या कर्तव्यस होन मनुष्य मनुष्यताहीन श्रीहीन असुर है । अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतत्सामासिक धर्म चातुर्वर्ण्य ऽब्रवीन्मनुः ॥ ( मनु) मनुने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बाह्याभ्यन्तर शुद्धि तथा इन्द्रियनिग्रहको चातुवणका सम्मिलित धर्म बताया है। यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥ (वैशषिक दर्शन ) जिस मानवोचित कर्तव्यपालनसे ऐहिक मभ्युस्थान तथा मानसिक कल्याण दोनों हो वही धर्म है। मनुष्यों के भोजन, माहार, निद्रादि पशुओंके ही समान है। मनुष्य में धर्म ही पशुमोंसे विशिष्ट वस्तु है । धर्मसे हीन मनुष्य और पशुमें कोई अन्तर नहीं है। महाभारतमें कहा है- “धारणाद्धर्ममित्याहुन लोकचरितं चरेत्" मनुष्यसमाजको सुव्यस्थित रखनेवाली नीति या कार्यप्रणाली ही धर्म कहा जाता है। मनुष्य लोकचरित्रका अनुसरण न करे। लोकचरित्रके कामादि दोषोंसे भरपूर होनेसे मनुष्य उसका अनुसरण न करें। लोकचरित्रका अनुसरण करनेसे धर्मका नाश निश्चित है । गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः। लोक सारसोंकी पंक्तिके समान एक दूसरेका अनुकरण करता है। वह सोचकर काम नहीं करता।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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