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________________ २९० चाणक्यसूत्राणि पाता । जब एक क्षुद्र नदी चलपडनेका दृढनिश्चय करके अपने उद्गम स्थानसे निकल पडती है, तब विशालकाय पर्वतोंकी भीमकाय चट्टानोंको भी, उस दृढनिश्चयी नदीको मार्ग देनेके लिये अपने आपको द्वितटभूमि बना. लेना पड़ता है। यह सब दृढनिश्चयकी अपार महिमा है । दृढनिश्चय ज्ञानीका ही एकाधिकार है । ज्ञानमें ही दृढता स्थिरता तथा अक्षय सुख है अज्ञानमें महढता भस्थिरता तथा दुःख है । दृढनिश्चयके अभावमें अज्ञानीका मोहग्रस्त स्वभाव दुरतिक्रम या दुस्त्याज्य बनारहता है । ज्ञानी अज्ञानी दोनों सूर्यकी तेजस्विता तथा अंगारकी कालिमाकी भांति सर्वथा अपरित्याज्य भिन्नभिन्न स्वभाव रखते हैं । परन्तु जैसे मंगारके जलकर राख होजानेपर उसमें शुभ्रता आजाती है, इसीप्रकार अज्ञानके परित्यक्त होजानेपर मानवमन में शुभ्रता माना स्वाभाविक होजाता है । मनुष्यका मन स्वभावसे सुखानुरागी है। वह दुःखसेवी बनना कभी नहीं चाहता । अज्ञानी अज्ञानमें सुख मानता तथा ज्ञानी ज्ञानमें सुस्का मानता है । अज्ञानी ज्ञानीके तथा ज्ञानी अज्ञानीके आचरणोंको नहीं अपना. सकता। इसलिये नहीं अपनासकता कि उसे उसीमें सुख प्राप्त होता है। ज्ञानी के लिये ज्ञानयुक्त तथा मज्ञानीके लिये अज्ञानयुक्त आचरण ही सुखसाध्य होता है । प्रायः लोग समझते हैं कि ज्ञानी अज्ञानियोंके साथ मिल. कर उपयोगी कार्य करसकता है। परन्तु यह उनका भ्रम है। ज्ञानी मज्ञानियोंके साथ मिलकर कोई भी महान् उद्देश्य सिद्ध नहीं करसकता। ज्ञानीका भाचरण ही राष्ट्र में सार्वजनिक कल्याणकारी आचरणके रूपमें अपनाने योग्य होता है । ज्ञानी ही राष्ट्र कल्याणमें अपना जीवन समर्पित करसकता है। राष्ट्रसंस्थामें ज्ञानियों को ही प्रवेशाधिकार मिलना चाहिये । राज्यसंस्थाके सुखलोभ पैदा करसकनेवाला होनेसे उसका निर्माण करनेवाला मनुष्यसमाज राज्यसंस्थानिर्माणके कामको मनुष्यताके संरक्षक ज्ञानी लोगोंके हाथों में सौंपकर ही निश्चित होसकता है । इस दृष्टि से सुखलोभ पैदा करसकनेवाली राजसेवामें अज्ञानियोंको सम्मिलित करने की भ्रान्ति नहीं करनी तथा नहीं होने देनी चाहिये । इसलिये नहीं करनी चाहिये कि अज्ञानी मानव अपने भाचरणोंमेंसे अमनुष्योचित सुखेच्छाका त्याग नहीं करसकता। वह हाथमें
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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