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________________ चाणक्यसूत्राणि पारस्परिक शत्रुताका अन्त होजाता है । अहंकार न रहनेपर यह समस्त संसार मनुष्य को अपना सहायक मित्र दीखने लगता है । अहंकारामिभूत मनुष्य विवेकहीन होकर अपने अवैध आचरणोंसे अपना पराया अनिष्ट करके संसारमें दुःखोंकी वृद्धि कर देते हैं । संसार में अशान्ति पैदा होना अहंका स्का ही दुष्परिणाम है । कर्ण, दुर्योधन, रावण आदिके जीवन अहंकारकृत अशांतिउत्पादनके उदाहरण हैं । 1 २५४ मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुक्त नियमेन मूढता । अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपज्यते जनः ॥ ( भारवि ) अविवेक कभी भी दर्प तथा अहंकार से समुद्धत राजासे अलग नहीं रहता । अतिमूढ ( अविवेकी ) मानव नीतिमार्ग से बाहर दूर फेंक दिया जाता अर्थात् नीतिहीन होजाता है । लोकमत नीतिद्दीन से विरक्त तथा रुष्ट होजाता और उससे असहयोग करलेता है । ( सभामें शत्रुसे वाग्व्यवहारकी नीति ) संसदि शत्रु न परिक्रोशेत् ॥ २८९ ॥ सभा में शत्रु के क्रोधको उत्तेजित करनेवाली कटुवाणी या अपभाषण करके विचारसभाको छेडछाडकी सभा मत बनाओ । विवरण - सभा में शत्रुपक्ष या उसके वक्ताकी व्यक्तिगत निन्दा करके मुख्य विचारणीय विषयको खटाईमें मत डालो । सौजन्य तथा शिष्टाचार की मर्यादा रहते हुए अपने पक्षका मण्डन तथा शत्रुपक्षका खण्डन करो सभा में बोलने की एक मार्यादा होती है । उसका उल्लंघन न करते हुए ही विवाद्य विषयपर आक्षेप या परिहार किये जाने चाहिये । 1 सूत्रका यह अभिप्राय नहीं कि समासे बाहर शत्रुसे अपभाषण या वाग्युद्ध छेडा जाय । इसका यह भी अर्थ नहीं कि शत्रुकी अनुचित बातका खण्डन भी न किया जाय । सूत्रकारका तात्पर्य यह है कि सभा के ही शत्रु के साथ वाग्युद्धका स्वाभाविक क्षेत्र होनेके कारण वहां शत्रुकी जोर से सत्तेजनाका कारण पाकर भी अपना वक्तव्य संयत सुसभ्य भाषामें रखना
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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