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________________ २५२ चाणक्यसूत्राणि भोगका कुअवसर न रहने देकर परमार्थलाभका समवसर बना डाले। मनुष्य गृहस्थधर्मको केवल सृष्टिपरम्परा चलाने मात्र के लिये स्वीकार करें। "प्रजायै गृहमधिनाम् " के अनुसार मनुष्य केवल समाजको श्रेष्ठ सदस्य देने के लिये गार्हस्थ्य धर्म स्वीकार करे । ऐसा करनेसे जहां मनुष्यको स्वास्थ्य, बुद्धिलाभ तथा मायुरक्षा होती है वहा समाजको स्वस्थ बलवान् संयमी सन्तान देनेका सन्तोष भी प्राप्त होता है। गृही लोग संयमी जीवन यापन करें, घरोंको तपोवन तथा सन्तानको सुचरित्रकी शिक्षा देनेवाला विश्वविद्यालय बनाकर रक्खें तो वे स्वयं भी वीर्यवान् मेधावी शक्तिमान तथा भायुम्मान हों और उनकी सन्तति भी ऐसी ही हो। अगम्यागमनादायर्यशःपुण्यानि क्षीयन्ते ।। २८७ ।। ( मनुष्यका सबसे बड़ा वरी) नास्त्यहंकारसमः शत्रुः ।। २८८ ॥ अहंकारसे बड़ा कोई शत्रु नहीं है । विवरण -- यहां जिस अहंकार को शत्रु कहा गया है वह भौतिक साम. यंका दंभ है । उसे ही यहां अहंकार के नामसे निन्दित करके उसे शत्रु कहा गया है । यों तो यह सारा ही संसार अहम्य है । दाम्भिकलोग भौतिक सामय के उपासक होते हैं। भौतिक सामथ्य की दासता ही धनबल, जनबल, देहबल रूपी आसुरिकता है। अपने से अधिक बलशालीका तो दास बन जाना तथा अपनेसे निबलपर आक्रमण करना ही अहंकार या असुर . स्वभाव है। देहात्मबुद्धि ( अर्थात् भरने पांचभौतिक देह ) को ही अपन। स्वरूप समझना अहंकारको परिभाषा है। मनुष्यकी इन्द्रियलाल साका ही नामान्तर देहात्मबुद्धि है। यह भावना ही मनुष्यकी भूल या अज्ञान है कि " हम भोगनेवाले हैं तथा रूप, रस आदि विषय हमारे योग्य हैं, हम इस संसारमें इन्हें भोगने के लिये आये हैं। इन्हें भोगनेके अतिरिक्त हमारे पास और कोई काम नहीं है।' इन्द्रियोंमें भोगप्रवृत्ति स्वाभाविक है । इन्द्रियोंकी
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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