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________________ २४४ चाणक्यसूत्राणि योग्य कालको पहचानने का बहुत बड़ा महत्व है । कर्तव्यका काल कर्तव्यका महत्वपूर्ण अंग है। कर्तव्यका योग्य काल बीत जानेपर कर्तव्य लूला, लंगडा भंगहीन होकर निष्फल होजाता है । भूखेके लिए थोडा भोजन भी हितकारी होता है क्षुधाहीनको मिली भोजनसामग्री भी वृथा होजाती है । अथवा- व्याधि सुचिकित्स्य हो तो औषधको बूंद भी काम करजाती है और मचिकित्स्य होचुकनेपर दिव्य औषधसे भी कुछ लाभ नहीं होता। (नीचके ज्ञान का नीच उपयोग) नीचस्य विद्याः पापकर्मणि योजयन्ति ।। २७४।। नीचोंकी (चतुराइयां) या पदार्थविज्ञान आदि कौशल उनके समस्त बुद्धिवैभव ( उन्हें विनीत, सुजन, उपकारक तथा धार्मिक न बनाकर ) उन्हें चोरी, कपट, माया, जिम्ह, अनृत, परवंचन, लुण्ठन, अनधिकारभोग आदि पापकर्मों में लगा देता है। विवरण-नीच लोगों में सुविधाजनित फल नहीं पाया जाता । मनुध्यको पापसे न रोककर पाप करनेकी कला सिखादेनेवाली विद्या विद्या न होकर अविद्या कहाती है। मनुष्य शुकविद्याके अध्ययनसे पापसे नहीं बच पाता । किन्तु शिष्टों के वातावरणका अंग बनकर उनसे शिष्टाचार, सौजन्य, विनय तथा कर्तव्याकर्तव्य विचार सीखकर ही पापसे बचकर गौरव पा सकता है । भागवतमें कहा है सरस्वती ज्ञानखले यथाऽसती। विद्वान् खलमें उसका ज्ञान उसकी सरस्वतीको दुष्टा बना लेता है। पाठान्तर---- नीचस्य विद्या पापकर्मणा योजयति । नीचकी विद्या उसे छल, कपट, चोरी आदि पापकोंमें सान देती है। पयःपानमपि विषवर्धनं भुजंगस्य नामृतं स्यात् ।।२७५॥ जैसे सांपको दूध पिलाना उसका विष बढाना होता है अमृ.
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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