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________________ दरिद्रताके दोष महेन्द्रमप्यर्थ हीनं न बहु मन्यते लोकः ॥ २५६ ॥ संसार अर्थहीन महेन्द्र ( स्वर्ग के सम्राट् ) का भी सम्मान नहीं २३३ करता । विवरण -- ऐश्वर्यहीन राजा सर्वमान्य न होसकनेसे राजा नाम पाने के भी योग्य होजाता है। लोग ऐसे राजाको देय समझने लगते और बादर नहीं करते। उसका पराभव होने लगता है । लोग संसारी व्यवहारों में भी धनहीनकी अवज्ञा किया करते हैं । अथवा संसारके लोग शरीरशक्तिमें इन्द्रतुल्य बली होनेपर भी अर्थ - शक्ति से हीनकी अवज्ञा करते हैं । पाठान्तर --- महेन्द्रमप्यर्थहीनमवमन्यते लोकः । संसार अर्थहीन महेन्द्रका भी अवमान करता है । ( दरिद्रता के दोष ) दारिद्र्यं खलु पुरुषस्य जीवितं मरणम् ॥ २५७ ॥ दरिद्रता जीवित मनुष्यको भी मृतवत् अर्थात् जीवनको मरणके समान व्यर्थ बनादेती है । विवरण - भौतिक देह या राज्यकी रक्षा भौतिक साधगोंसे ही होती है । देह-रक्षा या राज्य- रक्षा के साधनोंका न रहना देह और राज्य के विनाशका कारण बनजाता है । निर्धनताके प्रसंग में यह भी जानना चाहिये कि जहां साधनहीनता दता है वहां एक अन्य प्रकारकी भी घातक दरिद्रता है, जिस दरिद्रता से प्रभावित आढ्यतम लोग भी दूसरोंके जीवनसाधनको अन्याय तथा छल-कपटसे छीन लेने पर उतर आते हैं। धनका बाहुल्य होनेपर भी मनमें समाजद्रोही कुत्सित घनतृष्णाका बने रहना दरिद्रतासे भी बड़ी दरिद्रता है। यह वह दरिद्रता है जिसे हटाना सर्वथा मनुष्यके वशमेंहै । यह दरिद्रता मनुष्यकी स्वाधीन व्याधि है । घनतुष्णा मानवमनको चा
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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