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________________ धन उपार्जनीय है ( अधिक सूत्र ) व्यसनमना बाध्यते । २३१ व्यसनासक्त व्यक्ति विनष्ट होजाता है। 1 विवरण - अर्थ, सामर्थ्य तथा समयका दुरुपयोग करनेवाले निन्दित आचरण व्यसन कहते हैं । व्यसनकी अधीनता स्वीकार कर लेनेवाले दीन-हीन मानवपर उसीके अपनाये व्यसन आपत्तियाँ बुलाकर खडी करदेते हैं । व्यसन आपात - मधुर प्रतीत होनेपर भी अन्तमें मानव जीवनका सबसे कठोर शत्रु सिद्ध होता है । व्यसनको थोडासा नगण्य या मिष्ट समझना मनुष्यकी भयंकर भूल है । छोटासा थोडासा नगण्य भी व्यसन महाभयंकर विनाशकारी विस्फुल्लिंग होता है । ( धन उपार्जनीय है ) अमरवदर्थजातमार्जयेत् ॥ २५४ ॥ मनुष्य अपनेको अमर मानकर जीवनपर्यन्त जीवन सामग्रि योंका अर्जन करता रहे || - विवरण- मनुष्य अर्थोपार्जन के संबंध में अपनेको जरामरण-वर्जित पुरुष मानकर व्यवहार करे। सूत्र कहना चाहता है कि मनुष्य आलस्य, असामर्थ्य या उधारे वैराग्यको अपने ऊपर कभी अधिकार न करने दे । वह यह जाने कि उसका शरीर सेवा अर्थात् अपनेसें उत्तमोत्तम गुणका विकास करके उनका दिव्यानन्द लेनेका एक पवित्र साधन है । सत्यरूपी प्रभु ही इस संसार में मानवका एकमात्र सेव्य है। शरीरको सत्यकी सेवा में लगाये रखकर जीवन साधनोंका अर्जन करना मनुष्यका कभी भी त्याज्य नहीं है । धनकी आसक्ति, उसका लोभ ही त्याज्य है । कर्तव्य है ! धन या उसका मोह मृत्यु तो किसी भी क्षण आखडी होसकती है। जब तक मौतका स्पष्ट निमंत्रण न मिले तब तक मानव के जीवनका एक भी क्षण कर्तव्यहीन न
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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