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________________ नौकरशाही बनजाना पापमूलक २२३ प्रभुता बनाये रखकर ही मसत्य-दलनका व्रती रहसकता तथा अपने राज्य में सत्य या मनुष्यताके संरक्षक धर्मको जीवित बनाये रख सकता है। अपने ऊपर अधर्मको प्रमुख स्थापित करलेनेदेना राजाकी निस्तेज स्थिति है। धर्म ही तो राजाका राज्यैश्वर्य है । इससे भ्रष्ट होजाना तो राज्य से ही भ्रष्ट होनेके बराबर है । धर्मभ्रष्ट राजा पापीहायोंकी कठपुतली बनजाता है और वास्तवमें राज्यच्युत होचुका होता है। धर्मभ्रष्ट राजाका प्रजापर कोई प्रभाव नहीं रहता। प्रजापर राजाका प्रभाव न रहना ही राजाकी राज्यभ्रष्टता है। ऐसा राजा हाथमें शासनदण्ड धारण किये रहनेपर भी राज्यभ्रष्ट होता है। पाठान्तर- वल्लभस्य कातरत्वमधर्मयुक्तम् । राजाकी दोनता अधर्मयुक्त होती है। राष्ट्ररक्षा नामका धीर, वीर, गंभीर कर्तव्य रखनेवाले स्वामीका दीन कातर होना अधर्मयुक्त, भयोग्यतासूचक, पापान्वित और दुष्परिणामी होता है। राजाका राज्यैश्वर्यशाली तेजस्वी होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। राजा तो हो परन्तु उसके पास ऐश्वर्य न हो, यह कभी संभव नहीं है। राजा भी हो और अपनेको निर्बल भी समझे, यह उसकी दण्ड-धारणकी भयोग्यता है। उसकी यह हीनता उसे दण्ड-धारणमें असमर्थ बनाकर दण्डनीय पापियोंका दुःसाहस बढानेवाली बनजाती है। राजाकी इस हीनताका परिणाम राज्यमें अधर्मका अभ्युत्थान तथा धर्मकी ग्लानि करनेवाला बनजाता है। निस्तेज राजा अनिवार्य रूपसे पापोंको प्रोत्साहित करनेवाला होता है । तेजस्विता ही राजधर्म है। जिसमें सत्य-रक्षाके लिये अदम्य उत्साह होता है उसका उत्साह प्रतिक्षण असत्य-दमनका रूप लेकर क्रिया. शील रहता है । सत्य-रक्षा तथा असत्य-दमन ही राजाकी तेजस्विता है। इसके विपरीत सत्य-रक्षामें शिथिलता अनिवार्य रूपसे असत्यका दुःसाइस बढानेवाली दीनता है जो राजाके लिये भयंकर अपशकुन है। राज्य जैसे धीर वीर राष्ट्रीय उत्तरदायित्ववाले कर्मों में दीनता या कातरत।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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