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________________ पाप बढनेपर धर्मका अपमान २२७ सिर अवनत करने का सामर्थ्य ही धार्मिकोंका विश्वविजय है । सब लोग विश्व. भरकी मनुष्यताके प्रतिनिधि ज्ञानियोंका विश्वास और भादर करते हैं। यही तो उनका विश्व विजय है। वे सैन्यसामन्तोंसे विश्वविजय न करके इन्द्रिय. विजय या असत्यदमनके द्वारा ही विश्वविजेता बनते हैं। धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण । धर्म ( अर्थात् मानवोचित कर्तव्य-पालन ) से मनुष्य की ऊर्ध्वगति ( अर्थात् विश्वविजय ) और अधर्मसे अधोगति ( अर्थात् असत्यकी दासता या मनुष्यता-हीनता ) होती है । ( कर्तव्यनिष्ठ मौतसे भी नहीं मरता ) मृत्युपि धर्मिष्ठं रक्षति ॥ २३९ ।। सर्वसंहारी मृत्यु भी धार्मिकको इस संसारसे मिटा ( भुला) नहीं पाती। विवरण-- धर्मिष्ठके नश्वर देहका अन्त हो जानेपर भी उसका स्वरूप अविनाशी सत्य, उसके जीवन-कालमें तथा उसके पश्चात् उसके समाजमें या समाजरूपी जीवित ज्ञान-ग्रन्थ में एक जैसा समुज्ज्वल रहकर उसे अमर बनाये रहता और अनन्त कालतक पथभ्रान्त क्लान्त मानव-समाजके मार्गदीपकका काम करता चला जाता है। पाठान्तर- मृत्युरपि धार्मिकं रक्षति । ( मनमें पाप बढनेपर धर्मका अपमान ) धर्माद्विपरीतं पापं यत्र प्रसज्यते तत्र धर्मावमतिमहती प्रसज्येत ।। २४०॥ धर्मद्वेषी पाप जहाँ कहीं प्रबल होजाता या सिर उठा लेता वहाँ धर्मका महा अपमान होने लगता है। विवरण- धर्मद्वेपी असुर अधर्मके द्वारा अपने ही हार्दिक अधिष्ठातृ
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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