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________________ १९४ चाणक्यसूत्राणि विवरण- अधीर, मस्थिर, असंयमी मनुष्यको मिला बडेसे बडा राज्यैश्वयं भी उसके विनाशके ही काम माता है । उसके पास उसके ऐश्व. यका सदुपयोग करनेवाली ( अर्थात् समाज-कल्याणके द्वारा अपना सच्चा कल्याण करनेवाली) धीरता, स्थिरता, संयम तथा दानशीलता नहीं होती। इन गुणों के अभावमें उसके पास भाई संपत्ति दुरुपयुक्त होकर उसीके विनाशका कारण बनजाती है। यहॉपर ति शब्द मानवोचित समस्त गुणोंका उपलक्षण है। चरित्र, सुशिक्षा, दाक्षिण्य तथा वैदुष्य न होनेपर मनुष्यकी यही दुर्दशा होती है। वह मनुष्यतासे गिरकर देशद्रोही बन जाता है । देशकी दृष्टि में अवांछनीय बनजाना ही उसका विनाश है । धीरता, विवेक और संयमवाले पुरुषके पास बाई संपत्ति उसकी दृढताके कारण सदुपयोगमें भाती रहकर उसकी मनुष्यताको सुरक्षित रखनेके काम माती रहती है। संपत्तिका स्वभाव ही ऐसा है कि यह जिस घरमें घुसती है यदि उस घरमें विवेक न हो तो उसके गुणोंका सर्वनाश किये बिना, उस घरसे नहीं टलती। संपत्तिविषयक मामिल लाषाओंपरसे नियंत्रण उठ जाने से ही संसारमेंसे मनुष्यताका ह्रास होता जारहा है। अधीर मानवकी संपत्ति उसके विनाशके ही काम माती है । अधीर मानव संपत्ति के सदुपयोगकी कला जानता ही नहीं । संपत्ति, धैर्य और विवेकसे हो सुरक्षित और सदुपयुक्त होसकती है। विरोधी अवस्थाको पराभूत करके विजयी बने रहना धीरज है। अपने लक्ष्यपर स्थिर रहनेरूपी आत्मविश्वासकी अवस्थाका नाम धीरज है । सत्यपर सुप्र. तिष्ठित रहकर उसके बलसे असत्यकी उपेक्षा करते रहना धीरज है। विपदन्ता ह्यविनीतसंपदः।। अविनीत अर्थात् सत्यका नेतृत्व स्वीकार न करनेवाले मानवका ऐश्वर्य ससे अन्तमें विपद्यस्त कर देता है । पाठान्तर- महदैश्वर्यमवाप्याप्यधृतिमान् विनश्यति ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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