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________________ १८० অনুষ स्वीकार कर सकता है, जब वह उपदेष्टाको अपना सच्चा हितवक्ता मानले और उसे उसका उपदेश अपने हितार्थ होनेका सन्तोष मिले । उदाहरणके रूपमें ' चोरी मत करो' इस उपदेशको वही मनुष्य स्वीकार करेगा, जो इस उपदेशसे विपरीत चलने में अर्थात् चोरी करने में अपना अहित समझेगा । परन्तु जो चोर होगा उसे ' चोरी मत करो' यह उपदेश किसी भी प्रकार स्वीकार न होगा । क्योंकि चोरीको प्रोत्साहन देकर अपहृत होना किसीके लिए भी लाभदायक नहीं है । इसके विपरीत यदि कोई कहने लगे कि चोरको मत रोको तो यह उपदेश किसीको भी ग्राह्य नहीं होगा। इन सब दृष्टियोंसे इस सत्रका कर्तव्याकर्तब्यकी स्पष्ट कसौटीपर कसकर यही अभिप्राय लेना उचित होगा कि अपमान करना अवमन्ताके अपने ही लिये अहितकारी तथा शत्रुके लिये हितकारी है। हिताहितके क्षेत्र परम्पर विरोधी होते हैं। हिताहितके परस्परविरोधी संबंध रखनेवाले क्षेत्र में एक के हितसे दूसरेका अहित होना अनिवार्य होता है। अपमान करनेवाले लोग शत्रुका ही अनिष्ट करना चाहते हैं अपना नहीं । परन्तु दूसरेको हानि पहुँ. चाना चाहनेवाले लोग शत्रुको हानि पहुँचानेकी सच्ची विधिको त्यागकर भ्रान्तिवश शाब्दिक, तर्जन-गर्जनात्मक, खोखले निर्वीर्य क्रोधका प्रदर्शन करके अपने आप ही अशक्त तथा बुद्धिहीनके रूपमें व्यक्त होकर शत्रुके हाथों में स्वहानिकारक अस्त्र पकडा देते और अपना पराजय अवश्यंभाव। बनालेते हैं । खोखली, कोरी अरुन्तुद बातोंसे शत्रुको हानि पहुँचानेका प्रदर्शन करना ही इस निषेध्य अपमानका स्वरूप है। शत्रका खोखला विरोध न करके उसका ठोस विरोध करना चाहिये और उसे संसारके पटरेसे हटाकर मानना चाहिये । सक्रिय अरि-विरोधमें बाह्याडं घर, वागाडंबर, तर्जनगर्जन आदि व्यापार अपने ही लिये हानिकारक होनेसे उसीको यहां निषेध्य अपमान के रूपमें उपस्थित किया गया है। शत्रको बातोंसे नहीं मिटाया जा सकता। कोरी बातें तो शत्रको मिटाने के मार्गकी बाधक बनजाती है। बातोंसे शत्रके हाथों में आत्मनाशका हथियार पकडा दिया जाता है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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