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________________ १७२ चाणक्यसूत्राणि विवरण- विजयाभिलाषी अपने शत्रुके छिद्र ( निर्बलता, विपत्ति या किसी भयंकर विनाशक व्यसन ) में फंसे होने का निश्चय होजानेपर उसके निर्बल अंगपर आक्रमण करे । वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः । तमेव काले संप्राप्ते भिन्द्याद घटमिवाश्मनि ।। अब तक कालकी अनुकूलताकी प्रतीक्षामें धोका देकर सिरपर चढाये हुए शत्रुके विनाशकी पर्याप्त तैयारी कर लेनेपर, उसे पत्थर पर पटककर फोड डाले जानेवाले शिरोभारस्वरूप घडेके समान नष्ट कर डाले । कौम संकोचमास्थाय प्रहारानपि मर्षयेत् । काल काले च मतिमानुत्तिष्ठत कृष्णसर्पवत् ॥ विपरीत दिनों में कछवेकी भांति सुकडकर प्रहार सहा करे और अनुकूल काल आनेपर सांपकी भांति प्रहार करने के लिये उठ खडा हुमा करे । अजन्मा पुरुषस्तावद्गतासुस्तृणमव वा । यावन्नेषुभिरादत्ते विलुप्तमरिभिर्यशः ॥ अनियेन द्विषतां यस्यामर्षः प्रशाम्यति । पुरुषोक्तिः कथं तस्मिन् ब्रूहि त्वं हि तपोधन ॥ (शत्रको बलवान दीखनेके आयोजन करो ) आत्मच्छिद्रं न प्रकाशयेत् ॥ १९५ ॥ शत्रुको अपनी निर्बलताका पता न चलने देकर उसकी दृष्टिम बलवान बनकर रह ।। विवरण- तुम अपनी किसी ऐपी निर्बलताको शवपर प्रकट मत होने दो जिसके कारण वह तुमपर आक्रमण कर सके। नास्य गुह्यं परे विद्युश्छिदं विद्यात् परस्य च । . गृहेत् कूर्म इवांगानि यत्स्याद्विवृतमात्मनः ।। अपनी निर्बलताको शवको मत पहचानने दो, प्रत्युत तुम्हीं उसकी निबलताका पता चलाकर रखो । अपने प्रसारित अंगोंको छिपा लेनेवाले कूर्मके समान अपनी निर्बलताको शत्रुके आक्रमणोंसे बचाये रहो !
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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