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________________ पापियोंकी निर्लजता १६१ लोकमत राजासे भी अधिक शक्तिमान होता है । लोकमत राजशक्तिका या तो निन्दक या प्रशंसक बनकर अपनी शक्तिका प्रदर्शन किया करता है। वह इसी रूपमें राजासे भी अधिक शक्तिमान होता है। राजाकी शिष्टता या दुष्टताका पूर्ण परिचय राजशक्ति हाथमें मानेपर ही मिलता है । शक्तिहीन व्यक्ति लोकमतके सामने निन्दित होनेके साथ ही राजदण्डसे दण्डित भी होजाते है। नागरिकोंमें राजदण्डके भय से पापसे बचकर दण्डसे बचे रहने की प्रवृत्ति स्वभावसे होती है । पापी नागरिक समाजकी शान्तिका हरण करने. वाले तथा लोगोंके व्यक्तिगत शत्र होते हैं। लोकमतकी प्रतिनिधि राजशक्ति ही उन्हें इस कर्मसे रोकती है । परन्तु ऐसे राज्याधिकारी समाजके सार्वज. निक शत्रु होते हैं, जो लोकमतकी उपेक्षा करके गजशक्तिको शान्ति-स्थापनाके काम में न माने देकर, उसका समाजकी शान्ति-हरणमें दुरुपयोग करते हैं । “एकां लजां परित्यज्य त्रिलोकविजयी भवेत् ” को लोकोक्ति के अनुसार लोकनिन्दाका भय न माननेवाले निर्लज राज्याधिकारी इक्केदुक्के चोर-डाकुओंसे भी अधिक भयानक चोर-डाकू होते हैं । इन लोगों के हाथों में माया राज्याधिकार लूटके ठेकेका रूप लेलेता है। ये लोग जब राजगद्दोपर बैठकर लोकमतको असावधान पाते हैं, अर्थात् जब यह देखते हैं कि हम लोग राज्याधिकारका दुरुपयोग करके भी तथा लोकमें निन्दित होकर भी न केवल दण्डातीत रहसकते हैं, प्रत्युत लाभवान बने रहने का अवसर भी पारहे हैं, तब ये समाजके शत्रु चोर-डाकुओंके रूपमें निःशंक होकर आत्मप्रकाश कर बैठते हैं। इस सूत्रका मुख्य उद्देश्य लोकनिन्दाका भय न माननेवाले पापी राज्या. धिकारियों को दण्ड देनेकी शक्ति रखनेवाले लोकमतको सावधान (सचेत ) रखने के लिये समाजको सावधान करना है। राजशक्ति पापका दमन तब ही कर सकती है जब वह लोकमतका भय मानती हो अर्थात् जब वह स्वयं पाप न करनेवाली हो। जो राजशक्ति स्वयं पापी होती है वह पाप. दमन नहीं कर सकती । उसका पापोंको प्रोत्साहन देनेवाली होना अनि. वार्य होजाता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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