SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण - क्योंकि मनुष्यतासे पतित होकर ही अर्जित होनेवाला धन मूर्तिमान् अनिष्ट है, इसीलिये मनुष्यका चोरी, दस्युता, शठता, कुटिलता, माया तथा अनृतसे धनोपार्जन करना निन्दित है । हीन उपायोंसे आनेवाला 'वन नीचाशयको अच्छा लगता है । १३८ पाठान्तर- तद्विपरीतोऽनर्थसेवी । असन्मार्ग से धनोपार्जन करनेवाला मनुष्य निश्चित रूपसे अभापतित ढोकर अकथ्य हानि उठाता है । ( सपाजकल्याणकारी त्रिवर्गान्तर्गत काम ) यो धर्मार्थो न विवर्धयति स कामः ॥ १५७ ॥ जो धर्म, अर्थ दोनोंको वृद्धि न करे वह काम है । विवरण - इस पाठ में अर्थ संगतिका अभाव है । पीडयति पाठान्तर में अर्थसंगति है । इससे यह अपपाठ है । पाठान्तर-- यो धर्मार्थी न पीडयति स कामः । जो काम मानवोचित धर्म तथा मानवोचित अर्थनीति दोनों में से किसीको जी विकृत नहीं करता वही स्वीकरणीय काम है । यथार्थ काम ' वही है जो धर्म और अर्थ दोनोंमेंसे किसीको बाधा न करे या हानि न पहुंचाये। धर्म ( अर्थात् अनपहरण या दूसरों के अधिकारपर अनाक्रमण ) तथा अर्थ ( अर्थात् धर्मपूर्वक उपार्जित जीवनसाधनों ) का विरोध या अपघात न कर बैठनेवाले, समाजकी शान्तिके संरक्षक सुखोपभोग काम' कहते हैं । धर्म, अर्थ तथा काम ये नीतिज्ञोंके त्रिवर्ग या तीन पुरुषार्थ हैं । 'धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः ' । धर्म, अर्थ तथा काम तीनों को सन्तुलितरूप में सेवन करना चाहिये, इन तीनों में पारस्परिक सहकारिता और अवध्यघातकता रहनी चाहिये | गीता में कहा 1 है. धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy