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________________ १३६ चाणक्यसूत्राणि पहरण न करने तथा सार्वजनिक कल्याणमें ही अपना कल्याण समझनेवाले व्यक्ति ही आदर्श राज्यतन्त्र के धारक तथा निर्माता नागरिक होसकते हैं । इनके विपरीत अपने व्यक्तिगत स्वार्थको सार्वजनिक कल्याणसे अलग समझ कर कार्यार्थी समाजपर राजशक्तिके दबाव से आक्रमण करना भदान है, अधर्म है और आसुरिकता है । राज्यव्यवस्थापकों में से कोई किसी प्रजाके साथ छीना झपटी न करे, यही दानका सामाजिक तथा राजनैतिक रूप है । दूसरे के अधिकारपर हस्तक्षेप न करनेरूपी यह दान किसीको कुछ न देनेपर भी दानकी परिभाषामें आजाता है । यह दान द्रव्यात्मक न होकर भावनात्मक है । यह सूत्र राज्यव्यवस्थामें इसी भावनामय दानको प्रयोग में लाना आवश्यक बतानेके लिये हो बना है । चाणक्यने राजनीतिमें धर्म के नाम से दानको रखकर दानके इस राजनैतिकरूपकी ओर जो संकेत किया है वह भारतीय संस्कृति के मार्मिक चाणक्यकी राजनैतिक प्रतिभाकी विशेषता है । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दानधर्मका यह महत्त्वपूर्ण यथार्थरूप आजतक चाणक्य मिन किसी भी आधुनिक लेखकको नहीं सूझा और किसीने भी इस दानधर्म से राज्यतन्त्र के पवित्रीकरणके द्वारा राष्ट्रशोधनका उपक्रम नहीं किया । ( दानका उचित मार्ग ) ( अधिक सूत्र ) अपरधनानपेक्षं केवलमर्थदानं श्रेयः । बदलेमें दूसरेसे कुछ पाने की अपेक्षा न रखकर निःस्वार्थ शुद्ध अर्थदान ही श्रेष्ठ (अर्थात् कल्याणकारी ) होता है । विवरण - गीतामें दानके सात्विक, राजस, तामस तीन भेद वर्णित हैं । दातव्यमिति यद्दानं दीयतेनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः :1 दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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