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________________ चाणक्यसूत्राणि ( कार्यविनाशका कारण ) अप्रयत्नात कार्यविपत्तिर्भवति ॥१२८॥ कार्यके लिये अपेक्षित सम्पूर्ण प्रयत्न न करनेस कार्यका नाश होजाता है। पाठान्तर- नास्ति देवात् कार्यविपत्तिः । प्रबल पुरुषार्थ करनेपर उतरपडनेवालोंके काम देवसे नष्ट नहीं होपाते। विवरण- देव पुरुषार्थकी प्रबलता होते ही दुर्वल पडकर महत्वहीन होजाता है । देव प्रबल पुरुषार्थसे हार मान जाता है। प्रबल पुरुषार्थसे किये कर्तव्यका परिणाम भौतिक दृष्टि से शुभ अशुभ जो भी हो वही पुरुषार्थीके हृदय में कर्तव्यपालनका आत्मसन्तोष बनाये रखता है । यदि दैववश भौतिक परिणाम शुभ हो तो उसका यश पुरुषार्थीको ही मिलताहै। यदि वह अशुभ हो तो उसके हृदय में कर्तव्यपालनका जो सन्तोष रहता है, वह उसके हृदय में असन्तोषका दावदाह पैदा नहीं होने देता। पुरुषार्थीके सामने अनुकूल प्रतिकल, देव आदि तथा अन्त दोनों ही समय महत्वहीन माना जाकर उपेक्षित रहता है। ( असफल होनेवाले लोग ) न देवप्रमाणानां कार्यसिद्धिः ॥ १२९ ।। पहिलेसे ही असफलताका निश्चय करवठनेवालोंके काम सिद्ध नहीं होत या वे कोई नया काम प्रारंभ ही नहीं किया करत। विवरण- पुरुषार्थ देवाश्रित लोगोंमें निबल बनकर रहता है। पाठान्तर- न देवप्रमाणानां कार्यारम्भः ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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