SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चाणक्यसूत्राणि यशोधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसंख्यामतिवर्तितुं वा । निरुत्सुकानामभियोगभाजां समुत्सुके वाइकमुपैति सिद्धिः ॥ (१) सफलतायें या तो यशस्वी बनने, (२) भौतिक सुख पाने, या (३) श्रेष्टतम मनुष्य बनजाने के लिये फलसिद्धि के संबन्धमें किसी भी प्रकारकी उत्सुकता न रखकर तन्मय होकर कर्तव्यपालनमें जुट पडनेवाले लोगोंकी गोदों में उत्सुक होकर स्वयमेव माविराजती हैं। ( कर्तव्यपालन ही जीवन का लक्ष्य ) कार्य पुरुषकारेण लक्ष्यं सम्पद्यते ॥१७॥ कार्य पुरुषकारमें आजाने ( अर्थात् कर्तव्यरूपमें स्वीकृत हो चुकने ) के पश्चात् लक्ष्य बन जाता (अर्थात् फलका स्थान लेकर फलको गौणपक्षमें डाल देता या स्वयं ही मुख्य फल बन जाता ) है। विवरण- कर्तव्यको सुसंपन्न करलेना ही कर्तव्यनिष्ठ लोगों का मुख्य ध्येय बन जाता और परिणाम प्रधानपक्षमें चला जाता है। जब मनुष्य इस भावनाके साथ कर्तव्यपालनका सन्तोष उपार्जन करलेता है तब अपनेको इतनेसे ही कृतकृत्य मानलेता है । इसके अतिरिक्त कर्तव्य समाप्त होने पर भनिश्चित रूपमें कभी भाने और कभी न भानेवाले भौतिक फलकी दैन्य. जनक आकांक्षा उसके पूर्णकाम हृदयको अभावग्रस्त और प्रतीक्षक नहीं बनापाती। कर्तव्यमें उद्यम उत्साह अध्यवसाय होनेपर ही कार्य बनता है । कार्य पुरुषार्थ होके अनुसार संपन्न होता है। पुरुषार्थ के बिना किसीको कुछ पानेकी माशा करनेका कोई वैध अधिकार नहीं है। जिस काममें जितनी शक्ति व्यय करनी भावश्यक हो उतनी अवश्य करना ही पुरुषार्थ कहाता है। इस सूत्रमें वर्तमान पुरुषार्थ को ही उपादेय बताया गया है । नीतिज्ञोंने कहा है--- “ देवं निहत्य कुरु पौरुषमा मशवस्या" ओ मानव, तू दैवका हनन
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy