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________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- राष्ट्रको वृद्धि या समुच्छेद राजा प्रजा दोनोंकी योग्यता अयोग्यतापर निर्भर होते हैं । सुबुद्धिसे वृद्धि तथा कुबुद्धि से विनाश होता है। राजाके योग्य होनेपर ही राज्यका विस्तार होता तथा उसके नीतिहीन मद्यप, दुराचारी, व्यभिचारी, आखेटव्यसनी, जुआरी तथा निर्गुण होनेपर सुशासन न रहनेसे राज्यको निश्चित हानि होती है। ( दण्डप्रयोगमें सावधानता ) दण्डो हि विज्ञाने प्रीयते ।।६।। दण्डका प्रयोग समझकर किया जाना चाहिये। विवरण- दण्डका यथार्थ स्वरूप ही ऐसा है कि उसकी सम्यक मालोचना करनेपर सदसद्विचाररूपी ज्ञानमयो स्थिति अनिवार्यरूपसे प्रकट होती है। देखते हैं कि छोटे छोटे झगटे उच्च न्यायालयोतक पहुंचकर वहांके न्यायाधीशोंको चकरा देते हैं। वे किसे दण्ड दें यह समझने में असमर्थ रह जाते हैं । अपराधीका पकडा जाना तथा अपराध सिद्ध होना हंसी खेल नहीं है । इन सब दृष्टियोंसे दण्ड उत्तेजित होकर, किसी व्यक्ति, दल या संप्रदायसे प्रभावित होकर, या अपने किसी क्षुद्र स्वार्थकी भावनासे प्रेरित होकर प्रयोग करनेकी वस्तु नहीं है। दण्डका प्रयोग सक्ष्म विचार कर लेने पर ही उचित होता है। यदि दण्डको बाह्य प्रभावोंसे बचा लिया जाय तो वह स्वभावसे अभ्रान्त हो जाता है। पाठान्तर- दण्डनीत्यादि विज्ञाने प्रणीयते । दण्डनीतिका प्रयोग सापराध निरपराधका पूर्ण विवेक हो चुकनेपर ही किया जाना चाहिये । नीलकण्ठ भट्टने ' दण्डनीतिः प्रजापालन विद्या' दण्डनीतिको प्रजापालनकी विद्या नामसे कहा है। वास्तव में प्रजापालनकी विद्या ही दण्डनीति कहाती है । (राजाकी अवज्ञा राष्ट्रीय अपराध ) दुर्बलोपि राजा नावमन्तव्यः ।। ८७ ॥ राजाको दुर्बल साधारण मानवमात्र मानकर उसकी अवज्ञा न करे।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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