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________________ ७४ चाणक्यसूत्राणि ( दण्डके लाभ ) न दण्डादकार्याणि कुर्वन्ति ॥ ८२ ॥ अपगधशील लोग निग्रह,ताडन, वध तथा अर्थदण्डके भयसे विधानविरोधी नीतिहीन कार्योसे निवृत्त रहने लगते हैं। विवरण- पापशीलोंका दण्ड भय से पापसे निवृत्त रहना ही धर्मका गज कहाता है । क्योंकि धर्म ही धर्म, अर्थ और कामकी रक्षा करता है इसलिये धर्म ही त्रिवर्ग कहाता है। दण्डेन सहिता ोषा लोकरक्षणकारिका । ( महाभारत) राजशक्ति दण्डको अपने साथ रखकर ही लोकरक्षा करने में समर्थ होती है। दण्डः संरक्षते धर्म तथैवार्थ विधानतः । कामं संरक्षत यस्मात् त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ (महाभारत ) क्योंकि दण्ड ही धर्म, अर्थ तथा काम तीनों की रक्षा करता है इसलिये दण्ड ही त्रिवर्ग कहाता है। पाठान्तर- दण्डभयादकार्याणि न कुर्वन्ति । (दण्ड आत्मरक्षक) दंडनीत्यामायत्त मात्मरक्षणम् ।। ८३ ॥ दण्डनीतिको ठीक रखने पर ही आत्मरक्षा हो सकती है। जिलकी दण्डनीति अभ्रान्त होती है, उसीकी भारमरक्षा सुनिश्चित होती है । राजाका विपद्विजय केवल इसी बातपर निर्भर करता है कि उसकी दण्डप्रयोजक नीति क्या है और कैसी है ? प्रजाका कल्याण ही राजाका मात्मकल्याण तथा प्रजाकी रक्षा ही उसकी आत्मरक्षा है। प्रजाके कल्याणसे अलग राजाका कल्याण या उसकी रक्षासे अलग उसकी रक्षा नामकी कोई वस्तु नहीं है । प्रजाके अस्तित्व से अलग राजाका कोई अस्तित्व नहीं है। राजा प्रजाका ही प्रतीक है। राजा अपने राष्ट्रका सबसे पहला मुख्य नागरिक है। दूसरे शब्दों में प्रजा ही राजाका रूप ले लेती है और स्वयं ही अपना शासन या आरम
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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