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________________ [ ३७ ] विनाश करना है और पाप का बुलाना है व संसार में भटकने के लिये स्वयं अमंगल करना है। ॐ ॐ ॐ २२-५६३. वस''वसठीक है मेरे चतुष्टय में रहने वाला मैं सर्व विश्व से भिन्न हूँ काई कितनी ही भक्ति करे प्रशंसा कर, मेरे लिये उससे क्या मिलेगा ? कुछ नहीं ग्रन्युत पनन का ही सावन है । २३-७५४. प्रशंमा करने वाले ने तुम्हें दे क्या दिया ? वह तो बार में नोम पैदा करके संकल्प विकल्प की चक्की चला कर भाग गया। विचार तो सही' 'प्रशंसा में बहे मन । ॐ ॐ ॐ २४-७५५. निन्दा करने वाले ने तेरा हर क्या लिया ? वह तो वैचारा अपने शिर पाप लाध कर आपको दोप कह 'कर (चाहे वह हों या न हो) स्थिर व सावधान कर गा"मुखी रह ।
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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