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________________ [ २५६ ] ८.२०२. मनोहर ! तुम्हें तो प्रत्येक पदार्थ या अवस्था से गुण ग्रहण करने की ही आदत डालना चाहिये । है-२२.८. जो कुछ पढ़ा, पढ़ाया, सुना, सुनाया, उसे स्वयं के अर्थ रचनात्मक नहीं किया तो उस से लाभ नहीं प्रत्युत हानि है क्योंकि इस सफाई से चेतने का अवसर नहीं मिलता और यदि अधर्म की पुष्टियों में ज्ञान को सहकारी बनाया तब कौन रक्षक होगा ? १०-२६१. सम्यक् प्रवृत्ति करने में यदि लोकहास्य का भय है तब यह सम्यक्त्व का अतिचार है अतः लोकहास्य का भय मत करो जो उत्तम जचै सो करो। म ॐ5 ११-३२६. स्वात्मदृष्टि, परमात्मस्मरण, शास्त्राभ्यास, दोपवादमौन, सद्वृत्तकथा, प्रियहितवचनालाप सत्संगम इस प्रकार क्रम से पुरुषार्थ करो अर्थात् पूर्व पूर्व की ओर बढ़ो यदि पूर्व में शिथिल हो जाओ या थक जावो तब उत्तर का आश्रय लो। सर्व प्रथम स्त्रात्मदृष्टि इसलिये है कि वह सर्वोपरि है, सत्संग अन्त में इसलिये है कि इससे भी चूक जाने पर कल्याण की आशा नहीं। 卐 ॐ 卐
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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