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________________ [ ६५ ] १५-३७७. "मैं यदि कुछ कर सकता हूं तो अपने उपयोग का परिणमन ही कर सकता हूँ" इस बात को बार बार सोचो। फ्रॐ फ्र १६- ३८६. तुम्हारे द्वारा यदि दूसरों को लाभ होता हो उस में उनका भविष्य व सौभाग्य अन्तरङ्ग कारण समझो, अहसानी का भाव मत रखो । फ्रॐ फ्र १७ - ३८७ तुम्हें भी जो लाभ होता है उसमें अपना अन्तराय का क्षयोपशम अन्तरङ्ग कारण समझा । किसी का अहसान मानत हुए अपना भाव दैन्य मत बनाओ । फ्रॐ फ्र - १८-३६८ श्रात्मन् ! तुम कृतकृत्य है। क्यों कि तुम किसी पर पदार्थ के कर्ता नहीं हो वे स्वयंक्रियानिष्पन्न हैं त एव तुम पर का कर ही क्या सकते १ फलतः - पर में कुछ करना तो शेष है ही नहीं और पर से कर्तृत्ववुद्धि का प्रभाव होगया तब यही करने योग्य चीज थी सो यदि कर लिया तो कृतकृत्यता का आंशिक विकास ही तो हुआ, जो होना है होगा विकल्प मत करे । د फ ॐ ॐ
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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