SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट परिच्छेद । ( २३६ ) अर्थात् अच्छे प्रकार से “न” अर्थात् बन्धन (१) है, ऐसा पद " मङ्गलाणम्” है, अतः समझ लेना चाहिये कि "मंगलारा" इस पदमें आठवीं सिद्धि ( व शित्व ) सन्निविष्ट है । (ङ) मंगल शब्द ग्रह विशेषका भी वाचक है (२) तथा वह मंगल दक्षिण दिशा, पुरुष क्षत्रिय जाति, सामवेद, तमोगुण, तिक्तरस, मेवराशि, प्रबाल और त्रन्ती देश, इन आठ का अधिपति है (३), अष्टाधिपतित्वरूप मंगल शब्द में वर्णकांक्षा से वशित्व सिद्धि भी सन्निविष्ट है, अतः "मंगलाणं" इस पद के जप और ध्यान से वशित्व सिद्ध की प्राप्ति होती है । यह छठा परिच्छेद समाप्त हुआ । -: इष्टार्थदेवतरुकल्पमहाप्रभावम् । संसारपारगमनैकनिदानभूतम् ॥ अश्वेव मुक्तिसुखदं सुश्लेक्रिशस्यम् । स्तोत्रं हि पञ्चपरमेष्ठिनमस्कृतेर्वै ॥ १ ॥ व्याख्यातमत्रमतिमोहवशान्मया यत् । किञ्चिभवेद्वितरूपणया निबद्धम् ॥ शोध्यं तदर्हमतिभिस्तु कृपापरीतैः । भूशो न चित्रकृदिहाल्पधियो दुरापे ॥२॥ युग्मम् स्तोत्रस्य पुण्यस्य विधाय व्याख्याम् । मयार्जितो यः शुभपुण्यवन्धः ॥ तेनानुतां ह्येष समस्तलोकः । महाजनैष्यं शुभसौख्यकं वै ॥ २ ॥ रसदीपाशुभ्रांशु, मिते ह्याश्विने शुभे ॥ पौर्णमास्यां गुरोवरे, ग्रन्थोऽयं पूर्तिमागमत् ॥४॥ १-"न" नाम बन्धन का है । २- कोषों को देखो । ३-ज्योतिर्मयों को देखो ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy