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________________ षष्ठ परिच्छेद ।। ( २३९) मात्र तक का सर्वथा पराभव (१) हो गया है उस को साध कहते हैं, भला ऐसे साध के अाराधन से प्राकाम्यसिद्धि क्यों नहीं होगी। (छ)-चन्हिपुराण में साधुस्वभाव के विषय में कहा है कित्यक्तात्मसुखभोगेच्छाः, सर्वसत्त्वसुखैषिणः । भवन्ति परदुःखेन, साधवो नित्यदु खिताः ॥ १ ॥ परदुःखातुरानित्यं, स्वसुखानि महान्त्यपि । नापेक्षन्ते महात्मानः, सर्वभूतहितेरताः ॥ २ ॥ परार्धमुद्यताः सन्तः, सन्तः किं किं न कुर्वते । तादृगप्यम्बधे रि, जलदैस्तत्प्रपीयते ॥ ३ ॥ एकएव सतां मार्गो, यदङ्गीकृतपालनम् । दहन्तमकरोत् क्रोड़े, पावकं यदपाम्पतिः ॥ ४ ॥ आत्मानं पीडयित्वाऽपि, साधः सुखयते परम् । हादयत्नाग्नितान् वृक्षो, दुःखच सहते स्वयम् ॥ ५ ॥ अर्थ----जिन्हों ने अपने सुखभोग और इच्छा का परित्याग करदिया है तथा सर्व प्राणियों के मुख के जो अभिलाषी (२) रहते हैं। ऐसे साध जन दूसरे के दुःख से सदा दुःखी रहते हैं [ प्रात् दूसरों के दुःख को नहीं देख सकते हैं ] ॥ १॥ ___ सदा दूसरे के दुःख से प्रातुर (३) रहते हैं तथा अपने बड़े सुखों की भी अभिलाषा नहीं करते हैं और सब प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं वे ही महात्मा हैं ॥२॥ साध जन परकार्य के लिये उद्यात होकर क्या २ नहीं करते हैं,, देखो। मेष समुद्र के वैसे ( खारी ) भी जल को ( परकार्य के लिये ) पी लेते हैं ॥३॥ साधु जनों का एक यही मार्ग है कि वे अङ्गीकृत (४) का पालन करते हैं, देखो ! समुद्र ने प्रज्वलित अग्नि को गोद में धारण कर रक्खा है ॥४॥ साधु पुरुष अपने को पीडित करके भी दूसरे को सुखी करता है, देखो ! १-नाश. सिरस्कार ॥ २-इछा बाले ॥३व्याकुल ॥ ४-स्पीकृत ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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