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________________ पष्ठ परिच्छेद ॥ (२२३) स्वरूप के द्वारा ही गुरुनाव अयात् गरिमा का द्योतक ( ) है, अतः इसके जप और ध्यानसे गरिमासिद्धि की प्राप्ति होती है। (ख ) सिद्धि पद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त जीव सिद्ध कहलाते हैं, सिद्धि पद सबसे गुरु है अतः तदर्ती (२) महात्माओंके ध्यानसे गरिमा सिद्धिकी प्राप्ति होती है। - (ग)-"सिद्धा, पद से इम अर्थ का द्योतन (३) होता है कि-"सिद्धा" इस नाम से सिद्धेश्वरी योगिनी का ध्यान उपासक (४) जन करते हैं तथा "णम्” के विषय में पूर्व कहा जा चुका है कि-'णम् के जप और ध्यान से पञ्च प्राणों का संयम करते हैं, अतः तात्पर्य यह है कि "णम” के ध्यान और जप के माप "सिद्धा” अर्थात् सिद्धेश्वरी का ध्यान कर उम की कृपासे उपासक जन जसे गरिमा सिद्धि को प्राप्त करते हैं ( क्योंकि सिद्ध श्वरी ग. रिमा सिद्धि की अधिष्ठात्री और दात्री है ५), जैसा कि-'सिद्धा” इस गुरु स्वरूप नाम से ही उस को गरिमासिद्धि प्रदात्रीत्व (६) सिद्ध होता है ) उसी प्रकार ध्यानकर्ता पुरुष “सिद्धाणं” इस पद के जप और ध्यान से अ. नायास (9) ही गरिमा सिद्धि को प्राप्त हो सकता है। (घ)-"सिद्धाणं” इस पद में मगण है ( क्योंकि "मस्त्रिगुरुः" इस कथन के अनसार तीन गुरु वर्णों का एक मगण होता है), यदि “म गुरु" इस पद में विपर्यय (८) करदें तो प्राकृतशैलीसे गरिमा शब्द बन जाता है तथा "सिद्धाणं” पद गुरुरूप “म" अर्थात् मगण है, अतः उस के ध्यान से गरिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस विषय में यह शङ्का हो सकती है कि मगणरूप अर्यात् तीन गुरुमात्राओं से विशिष्ट (e) तो "लाला जी" "रामूजी” “कोड जी" "कालजी, इत्यादि अनेक शब्द हैं, फिर उन के जप और ध्यान से गरिमा सिद्धि की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इस का उत्तर यह है कि-शब्द विशेष में जो दैवी शक्ति स्व. भावतः (१०) सन्निविष्ट है और जिस का पूर्व महात्मानों ने तदनुकूल व्यव. हार किया है। तदनुसार उसी शब्द में वह शक्ति माननी चाहिये, देखो ! कूप, सूप, यूप, धप पूप, नादि शब्दों में आदिवर्ती (१९) एक ही अक्षर में १-प्रकाशक, सूचक, ज्ञापक ॥२-सिद्धिपदमें स्थित ॥ ३-सूचना ॥४-उपासना करने वाले ५-देने वाली ॥ ६-गरिमा सिद्धि का देने वाला पन ( देना) ॥ ७-सहज में ॥ ८-परिवर्तन ॥ ६-युक्त ॥ १०-स्वभाव से ॥ ११-आदि में स्थित ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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