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________________ (२) श्रीमन्त्रराजगुणकल्प महोदधि ॥ इस के विषय में हम अपनी ओर से विशेष प्रशंसा क्या करें, इस पद्धति के निर्माता श्री जिनकीर्त्ति सूरिजी महाराज ही स्वयं पद्धति के अन्त में लिखते हैं कि - "पूर्वी आदि भङ्गों को अच्छे प्रकार जानकर जो उन्हें भाव पूर्वक प्रतिदिन गुणता है वह सिद्ध सुखों को प्राप्त होता है, जो पापामासिक और वार्षिक तीव्र तप से नष्ट होता है वह पाप नमस्कार की अ पूर्वी के गुणने से आधे क्षण में नष्ट हो जाता है, जो मनुष्य सावधान मन होकर अनानुपूर्वी के सब ही भङ्गों को गुणता है वह प्रतिरुष्ट वैरियों से बांधा हुआ भी शीघ्र ही मुक्त हो जाता है, इस से अभिमन्त्रित श्रीवेष्ट से शाकिनी और भूत आदि तथा सर्वग्रह एक क्षणभर में नष्ट होजाते हैं, दूसरे भी उपसर्ग; राजा आदि के भय तथा दुष्ट रोग नवपद की नानुपूर्वी के गुणने से शान्त हो जाते हैं, इस नवपद स्तोत्र से परम पदरूप सम्पत्ति की प्राप्ति होती है, इस पञ्च नमस्कार स्तोत्र को को स्वयं करता है तथा जो संयम में तत्पर होकर इस का ध्यान करता है वह उस सिद्धि सुख को प्राप्त होता है कि जिस की महिमा जिन भगवान् ने कही है” । उक्त महोदय ही स्वोपज्ञ टीका के अन्त में भी लिखते हैं कि - " एष श्रीपरमेष्ठिनमस्कार महामन्त्रः सकलसमीहितार्थप्रापणकरपद्माभ्यधिकमहिमा शान्तिकपौष्टिकाद्यष्टकर्मकृत् ऐहिक पारलौकिकस्वाभिप्रे सार्थसिद्धये यथा श्रीगुर्वाम्नायं ध्यातव्यः" अर्थात् "यह श्री पञ्च परमेष्ठिनमस्कार महामन्त्र है, सब समीहित पदार्थों की प्राप्ति के लिये इस को महिमा कल्पवृक्ष से भी अधिक है, यह ( महामन्त्र ) शान्तिक शौर पौष्टिक प्रादि आठ कार्यों को पूर्व करता है, इस लोक और परलोक के अपने प्रमष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये श्रीगुर्वाम्नाय से इसका ध्यान करना चाहिये । इसी की महिमा के विषय में महानुभाव पूर्वाचार्यों का भी कथन है fa - " नवकार इक अक्खर पावं फेडेइसत्त प्रयाणं ॥ पन्नासं च पराणं सागर पण तय समग्रोणं ॥१॥ जो गुणइ लक्खमेगं पूएइ विदीहिं जिणनमुक्कारं ॥ तिFree नाम गोचं सोवंधइ नत्थि सन्देहो ॥ २ ॥ श्रव दुसया घट्ट सहस्तं च कोडी श्री । जो गुणइमत्तिजुत्तो सो पावइ सामयं ठाणं” ॥ ३ ॥ अर्थात् श्रनवकार मन्त्र का एक प्रक्षर भी सात सागरोपमों के पापों को नष्ट करता है, इसका एक पद पचास सागरोपमों के पापों को नष्ट करता Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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