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________________ (२०४) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि । ल्याण कारी (१) प्रति पाद्य (२) विषय के प्रतिपादन (३) में आदि मध्य और अन्तमें मंगल करना प्राप्तनिर्दिष्ट (४) वा प्राप्त सम्मत (५) है, ऐसा करने से उसके (६) पाठक शिक्षक (७) और चिन्तकों (८) का सदैव मंगल होता है तथा प्रतिपाद्य विषय की निर्विन, परिसमाप्ति होकर उसकी सदैव प्रवृत्ति होती है,” अतः यहां पर अन्तमें मंगल करनेके लिये “मंगलं" इस पद का साक्षात् प्रयोग किया गया है, अर्थात् मंगलार्थ वाचक (8) मंगल शब्द को रक्खा गया है। यह पांचवां परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ १-संसार का कल्याण करनेवाले ॥२-कथन करने योग्य ॥ ३-कथन ॥ ४आप्तौ (यथार्थवादी महानुभावों) का कथित ॥ ५-आप्तों का अभीष्ट ६-पढ़नेवाले ॥ ७-सिखानेवाले ८-विचार करने वालों ॥ ६-मङ्गलरूप अर्थ का कथन करने वाला॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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