SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७० ) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ ( प्रश्न ) छठे से लेकर नवें पद् पर्यन्त यह कहा गया है कि - "यह पञ्च नमस्कार सब पापों का (१) नाश करने वाला है तथा सब मङ्गलों में यह प्रथम मङ्गल है | इस विषय में प्रष्टव्य (२) यह है कि- मङ्गल किसको कहते हैं और मङ्गल कितने प्रकार का है तथा यह पञ्च नमस्कार प्रथम मङ्गल क्यों है ? (उत्तर) - मङ्गल शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि - "मङ्गति हितार्थं सर्पति, मङ्गति दुरदृष्टमनेन अस्माद्वेति मङ्गलम्” अर्थात् जो सब प्राणियों के हित के लिये दौड़ता है उसको महल कहते हैं, अथवा जिस को द्वारा वा जिस से दुरदृष्ट ( दुर्दैव, दुर्भाग्य ) दूर चला जाता है उस को मङ्गल कहते हैं, तात्पर्य यह है कि जिस से हित और अभिप्रेत (३) अर्थ (४) की सिद्धि होती है उस का नाम मङ्गल है । मङ्गल दो प्रकार का है - द्रव्य मङ्गल अर्थात् लौकिक मङ्गल (५) तथा भाव मङ्गल अर्थात् लोकोत्तर मङ्गल, (६) इन में से दधि (७) अक्षत, (८) केसर, चन्दन और दूर्वा (c) प्रादि लौकिक मङ्गल रूप हैं, इनको अनैकान्तिक ( ११ ) तथा नात्यन्तिक (१०) मङ्गल जानना चाहिये, नाम मङ्गल, स्थापना मङ्गल तथा द्रव्यं मङ्गल से वाळित (१२) अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है; किन्तु इससे विपरीत जो भाव मङ्गल है वह ऐकान्तिक (१३) तथा श्रात्यन्तिक (१४) होता है, इसी ( भावमङ्गल ) से अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि होती है, प्रतः द्रव्य मङ्गल की अपेक्षा भाव मङ्गल पूजनीय तथा प्रधान है, वह (भावमङ्गल) जप तप तथा नियमादि रूप भेदों से अनेक प्रकार का है, उनमें भी यह पञ्च परमेष्ठि नमस्कार रूप मङ्गल प्रति उत्कृष्ट (१५) है, अतः इसका अवश्य ग्र हण करना चाहिये; इससे मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है; क्योंकि जिन परमेष्ठियों को नमस्कार किया जाता है वे मङ्गलरूप; लोकोत्तम (१६) तथा श रणागत वत्सल (९७) हैं, कहा भी हैं कि - " अरिहन्ता मंगलं, सिद्धा. मंगलं, १- ज्ञानावरणादिरूप सब पापों का ।। २- पूछने योग्य विषय ।। ३-अभीष्ट ॥ ४- पदार्थ ।। ५-सांसारिक मङ्गल ।। ६-पारलौकिक मङ्गल ।। ७- दही ॥ ८-चावल ॥ ६- दूब ।। १०- सर्वथा मङ्गलरूप में न रहने वाला ॥। ११ - सर्वदा मङ्गलरूप में न रहने घाला ।। १२-अभोष्ट ।। १३- सर्वथा मङ्गलरूप में रहने वाला ।। २४-सर्वदा मङ्गलरूप. में रहने वाला ।। १५-सब में बड़ा ।। १६-लाक में उत्तम ॥ १७- शरण में आये हुए जीव पर प्रेम रखने वाले ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy