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________________ (१६८ ) श्रीमन्त्रराजगुण कल्पमहोदधि ॥ होता है, उसका अर्थ यह है कि- सव्य अर्थात् दक्षिण ( अनुकूल ) कार्य के विषय में जो साधु अर्थात् निपुण हैं । ( १ ) (च) इस पद में “ लोक" शब्द से ढाई द्वीप समुद्र वर्ती मनुष्य लोकका ग्रहण होता है, जो कि ऊर्ध्व भागमें नौ सौ योजन प्रमाण है और अधोभाग में सहस्त्र योजन प्रमाण है, किञ्च कतिपय (२) लब्धिविशिष्ट (३) माधुजन मेरुचूलिका तक भी तपस्या करते हुए पाये जाते हैं, इस प्रकार लोक में जहां २ जो २ साधु हों उन सबको नमस्कार हो, यह सर्व शब्दका तात्पर्य है । ( प्रश्न ) यह जो पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार करना है वह संक्षेप से (४) कर्तव्य है, अथवा विस्तार पूर्वक (५) कर्तव्य है; इनमें से यदि संक्षेप से नमस्कार कर्त्तव्य कहो तो केवल सिद्धों को और साधुओं को ही नमस्कार करना चाहिये, क्योंकि इन दोनों को ही नमस्कार करने से अरिहन्त, - चार्य और उपाध्याय का भी ग्रहण हो ही जाता है (६); क्योंकि अरिहन्त आदि जो तीन हैं वे भी साधुत्व का त्याग नहीं करते हैं और यदि वि स्तार पूर्वक नमस्कार कर्तव्य कहो तो ऋषभादि चौवीसों तीर्थङ्करोंको व्यक्ति समुच्चार पूर्वक (9) अर्थात् पृयक् २ नाम लेकर नमस्कार करना चाहिये । ( उत्तर ) अरिहन्त को नमस्कार करने से जिस फलकी प्राप्ति होती है. उस फल की प्राप्ति साधनों को नमस्कार करने से नहीं हो सकती है, जैसे राजादि को नमस्कार करनेसे जो फल प्राप्त होता है वह मनुष्यमात्र को नमस्कार करने से प्राप्त नहीं होसकता है, इसलिये विशेषता को लेकर प्रथम अरिहन्त को ही नमस्कार करना योग्य हैं । ( प्रश्न ) जो सब में मुख्य होता है उसका प्रथम ग्रहण किया जाता है, यह न्यायसङ्गत (८) बात है; यहां परमेष्ठि नमस्कार विषय में प्रथम अरिहन्त का ग्रहण किया गया है परन्तु प्रधान न्यायको मान कर इन पञ्च परमेष्ठियों में से सर्वथा कृतकृत्यता (९) के द्वारा सिद्धों को प्रधानत्व (१०) है; १-“सव्येषु दक्षिणेषु अनुकूलेष्विति यावत् कार्येषु साधवो निपुणा इति सव्यसाधवस्तेषाम्” ॥ २-कुछ ॥ ३-लब्धि से युक्त ॥ ४- संक्षिप्तरूप में ॥ ५ - विस्तार के साथ ॥ ६-तात्पर्य यह है कि सिद्धों को और साधुओं को नमस्कार करने से अरि-: हन्तों आचार्यों और उपाध्यायों को भी नमस्कार हो जाता है । ७ व्यक्ति के उच्चारण के साथ ॥ ८-न्याय से युक्त ॥ ६- कार्यसिद्धि, कार्यसाफल्य ॥ १० - मुख्यता ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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