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________________ (१०८) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ इस प्रकार क्रम से अभ्यास के श्रावेश (१) से निरालम्ब (२) ध्यान का सेवन करे, तदनन्तर ३) समान रसभाव को प्राप्त होकर परमानन्द का अन् भव करे ॥५॥ बाय स्वरूप को दूर कर प्रसक्तियक्त (४) अन्तरात्मा से योगी पुरुष तन्मयत्व (५) के लिये निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करे ॥६॥ आत्मबुद्धिसे ग्रहण किये हुए कायादि को बहिरात्मा कहते हैं तया काया द का जो समधिष्ठायक (६) है वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥ ७ ॥ बुद्धिमान् जनों ने परमात्मा को चिद्रूप, (७) प्रानन्दमय, (८) सब स. पोधियों से रहित, शुद्ध, इन्द्रियों से अगम्य, () तथा अनन्त गुणयक्त कहा है ॥८॥ योगी पुरुष प्रात्मा को काय से पृथक जाने तथा सद्रूप प्रात्मासे काय को पृथक जाने. क्योंकि दोनों को अभेद रूप से जानने वाला योगी प्रात्मनिश्चय में (१०) अटक जाता है ।। ६ ।। जिस के भीतर ज्योतिः पाच्छादित (११) हो रही है। वह मूढ़ पात्मासे परभव में सन्तुष्ट होता है; परन्तु योगी परुष तो वाह य पदार्थों से भ्रम को हटाकर आत्मा में ही सन्तुष्ट हो जाता है ॥ १०॥ यदि ये ( योगी जन) प्रात्मा में ही श्रात्मज्ञान की इच्छा करें तो ज्ञानवान् पुरुषों को बिना यत्न के ही अवश्य अविनाशी पद प्राप्त हो स. कता है ॥ १९॥ जिस प्रकार सिद्धरस के स्पर्श से लोहा सुवर्णभाव (१२) को प्राप्त होता है उसी प्रकार श्रात्मध्यान से प्रात्मा परमात्मभाव को प्राप्त होता है ॥१२॥ जन्मान्तर के संस्कार से स्वयं ही तत्त्व प्रकाशित हो जाता है, जैसे कि सोकर उठे हुए मनुष्य को उपदेश के विना ही पूर्व पदार्थों का ज्ञान हो जाता है ॥ १३ ॥ १-वेग, वृद्धि ॥ २-आश्रय रहित ॥ ३-उस के पीछे ॥ ४-तत्परताके सहित ।। ५-तत्त्वरूपस्य ।। ६-जेता, आश्रय दाता॥७-चेतनखरूप, शानरूप।।८-मानन्दस्वरूप ॥ ६-न जानने योग्य ।। १०-आत्मा का निश्चय करने में ।। ११-ढकी हुई ॥१२-सुवर्णत्त्व, सुजर्णपन ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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