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________________ तृतीय परिच्छेद ॥ (१२५) मरोंके शब्दोंसे मानों स्तुति किया जाता हुआ अशोक वृक्ष उसके ऊपर शोभा देता है ॥ ३४ ॥ - उस समय छःओं ऋतु एक ही समय में उपस्थित हो जाते हैं, मानों वे कामदेवकी सहायता करने से प्रायश्चित्त को लेनेके लिये उपस्थित होते प्रभुके आगे शब्द करती हुई मनोहर दुन्दुभी आकाशमें शीघ्र ही प्रकट हो जाती है, मानो कि वह मोक्ष प्रयाण के [२] कल्याण को कर रही हो ॥३६ । उसके समीपमें पांचों इन्द्रियोंके अर्थ [ विषय ] क्षण भर में मनोज्ञ [२] हो जाते हैं, भला बड़ों के समीप में गुणोत्कर्ष [३] को कौन नहीं पाता ___सैकड़ों भवों [४] के सञ्चित [५] कर्मों के नाश को देखकर मानों डर गये हों; इस प्रकार बढ़ने के स्वभाव वाले भी प्रभुके नख और रोम नहीं बढते हैं । ३८ । उन के समीप में देव सुगन्धित जल की वृष्टि के द्वारा धन को शान्त कर देते हैं तथा खिले हुए पुष्पों की वृष्टि से सब पृथिवी को सुगन्धित कर देते हैं ॥ ३८ ॥ इन्द्र भक्तिपूर्वक प्रभु के ऊपर गङ्गा नदी के तीन झरनों के समान तीन पवित्र छत्रों को मण्डलाकार (६) कर धारण करते हैं ॥ ४०॥ "यह एक ही अपना प्रभु है” यह सूचित करने के लिये इन्द्र से उठाये हए अङ गुलि दण्ड (७) के समान प्रभु का रत्नध्वज () शोभा देता है ॥४१॥ मुख कमल पर गिरते हुए, राजहंम के भ्रम को धारण करते हुए तथा शरदऋतु के चन्द्र की किरणों के समान सुन्दर चमर (6) वीजित (१०) होते हैं ॥ ४२ ॥ समवसरण में स्थित प्रभ के तीन ऊंचे प्राकार इस प्रकार शोभा देते हैं १-मोक्ष में गमन ।। २-सुन्दर, मन को अच्छे लगाने वाले ॥ ३-गुणों के महत्त्व ॥ ४-जन्मों ॥ ५-इकट्ठे किये हुए । ६-मण्डलाकृति, गोलाकार ॥ ७-अङ्गलिकर दए ॥ ८-रत्नपताका ॥ ६-चंवर ॥ १०-हिलते हुए। Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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