SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११८ ) श्रीमन्त्रराजगुण कल्पमहोदधि ॥ क- मोक्ष लक्ष्मी के सम्मुख (१) रहने वाले, सब कर्मों के नाशक, चतु र्मुख, (२) सर्वलोक को अभय देने वाले, चन्द्र मण्डल के समान तीन छत्रोंको धारण करने वाले, प्रदीप्त प्रभामण्डल (३) से सूर्य मण्डल का तिरस्कार करने वाले, दिव्य दुन्दुभि के निर्घोष (४) से जिन की साम्राज्य सम्पत्ति ( ५ ) प्रकट होती है, शब्द करते हुए भ्रमरों (६) के झङ्कार से शब्दायमान ( 9 ) अशोक वृक्ष जिन का शोभित हो रहा है, सिंहासन पर विराजमान, चामरों से वी" ज्यमान, (८) जिन के चरणों के नखों की कान्ति से सुरासुरों के शिरोरत्न (c) प्रदीप्त होते हैं, जिन की समाभूमि दिव्य (१०) पुष्पसमूह के विखरने से अच्छे प्रकार व्याप्त हो जाती है, जिन की मधुर ध्वनि का पान कन्धे को उठा कर मृगकुल (१९) करते हैं, हाथी और सिंह आदि भी वैर को छोड़कर समीपवर्ती रहते हैं, सर्व अतिशयों से युक्त, केवल ज्ञान से भास्वर (१२) तथा समवसरण में स्थित, परमेष्ठी अर्हत प्रभु के रूप का श्रालम्बन (१३) करके जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ कहते हैं ॥ १-७ ॥ रागद्वेष और महामोह के विकारों से अकलङ्कित, (१४) शान्त, (१५) कान्त, (१६) मनोहारि, सर्व लक्षणों से युक्त, पर (११) तीर्थिकों से अज्ञात (१८) योगमुद्रा से मनोरम, नेत्रों को अत्यन्त और अविनाशी आनन्द दा यक, जिनेन्द्र की प्रतिमारूप ध्यान का भी निर्निमेष (१९) दृष्टि से निर्मल मन होकर ध्यान करने वाला पुरुष रूपस्थ ध्यानवान् कहलाता है ॥ १०॥ अभ्यास के योग से तन्मयत्व (२०) को प्राप्त होकर योगी पुरुष स्पष्टतया अपने को सर्वज्ञ स्वरूप में देखता है ॥ १९ ॥ जो यह सर्वज्ञ भगवान् है वही निश्चय करके मैं हूं, इस प्रकार तन्मयता 7 को प्राप्त होकर वह सर्ववेदी (२१) माना जाता है ॥ १२ ॥ क- अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थ के नवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है ॥ १ – सामने ॥ २ – चारों ओर मुख वाला ॥। ३- प्रकाशसमूह ॥ ४ - शब्द ॥ ५ - चक्रवर्ती की सम्पत्ति |६ - भौंरों । ७- शब्द युक्त ॥ ८-हवा किये जाते हुए ||६शिर के रत्न ।। १० - सुन्दर ।। ११- मृगगण ।। १२ – प्रकाशयुक्त ।। १३ - अश्रिय ॥ १४ –कलङ्क से रहित । १५ - शान्तियुक्त ॥ १६ - कान्तियुक्त || १७ - परमतानुयाथियों ॥। १८ - न जानी हुई ।। १६- पलक लगाने से रहित, एकटक || २० -- तत्स्वरूपत्त्व ।। २१ - सर्वज्ञ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy