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________________ ( १२ ) श्रीमन्त्रराज गुणकल्प महोदधि ॥ इसकी व्याख्या पूर्व के समान जान लेनी चाहिये, उसकी “त" अर्थात् पूंछ; अर्थात् केतु, एकाक्षर कोष में तकार तस्कर युद्ध क्रोड (१) और पुच्छ (२) अर्थ का वाचक कहा गया है, तथा ज्योतिर्विदों के मत में केतु राहु पुच्छ रूप (३) है, यह बात प्रसिद्ध है, क्योंकि कहा गया है कि " तत्पुच्छे मधुहायामापदः खं विपक्षपरितापः" यहापर " तत्पच्छ" शब्द से राहुपुच्छ अर्थात् केतु का ग्रहण होता है, यह वाक्य ताजिक में है, हे उदरहत ! तू ऋण अर्थात् ऋण के समान श्राचरण कर, “मा" शब्द निषेध अर्थ में है, जिस प्रकार ऋण दुःखदायक है उसी प्रकार केतु भी उदित (४) होकर जनों को घोड़ा पहुंचाता है; इसलिये ऐसा कहा गया है कि तू ऋण के समान मत हो, नकार भी निषेध अर्थ में है, दो वार बांधा हुआ सुबद्ध (५) होता है; इस लिये दो निषेध विशेष निषेध के लिये है ॥ ११० - अब नवरसों (६) का वर्णन किया जाता है उनमें से पहिले शृङ्गार रस का वर्णन करते हैं, देखो – कोई कामी पुरुष कुपित ( 9 ) हुई कामिनी (८) को प्रसन्न करने के लिये कहता है कि- “हे नमोदरि” अर्थात् हे कृशोदरि (९) ! तू “अण” अर्थात् बोल, “हन्त" यह श्रव्यय कोमलामन्त्रण (१०) अर्थ में है, "नम" अर्थात् नमत् अर्थात् कृश है उदर जिसका उस को नमादरी अर्थात् क्षामोदरी (११) कहते हैं, उसका सम्बोधन “हे नमदरि" ऐसा बन जाता है ( १२ ) ॥ 1 श्री परमगुरु श्री जिन माणिक्य सूरि के शिव्य पण्डित विनयसमुद्र गुरुराज की पादुकाके प्रसाद से ज्ञान को प्राप्त होकर पण्डित गुणरत्न मुनि (१३) ने इसे लिखा ॥ श्रीः, श्रीः, शम्भवतु ॥ यह दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ १० - कोमलता १२ - नवरसके १-गोद ॥ २-पूंछ ॥ ३-राहु की पूंछ रूप ॥ ४-उदय युक्त ॥ ५-अच्छे प्रकार से बंधा अथवा बांधी हुआ ॥ ६-नौ ॥ ७ - क्रुद्ध ॥ ८- स्त्री - दुर्बल उदरवाली ॥ (नम्रता) के साथ सम्बोधन करना ॥ ११-कुश दुर्बल उदर वाली ॥ वर्णन के अधिकार की प्रतिज्ञा कर प्रथम इसके वर्णन में ही ग्रन्थका ग्रन्थ के विच्छेद का सूचक है ॥ १३- ये पण्डित गुणरत्नमुनि कब हुए; इसका ठीक निश्चय नहीं होता है ॥ समाप्त होना Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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