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________________ ५४] जैन साहित्य संशोधक. [खंड २ अच्छा जमाव रहता था । कवि ने स्वयं उसे 'दीनानाथ धनं सदा बहुधनं' कहा है । इसी कीर्ति से आकर्षित हो कर पुष्पदन्त मान्यखेट आये होंगे। पर वे 'अभिमान मेरु' थे, इस से सीधे राजदरबार में नहीं गये । नगर के बाहर ही एक उपवन में टिक रहे । पर मान्यखेट में उन के जैसे कवि रत्न देर तक छिपे नहीं रह सकते थे । वे मंत्री भरत से मिला दिये गये। वहां उन का खूब आदर सत्कार हुआ, स्वयं भरत के प्रासाद में उन्हें रहने को स्थान दिया गया और वे कविता करने को प्रोत्साहित किये गये। यह निर्णय किये जाने के अभी कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं कि महापुराण से कितने समय पश्चात् ' यशोधर चरित' और ' नागकुमार चरित' की रचना हुई । पर इतना निश्चित है कि वे दोनों महापुराण से पीछे लिखे गये हैं। महापुराण पूर्ण होने तक भरत मान्यखेट के मंत्रित्व पद पर थे । पर अन्य दो काव्यों की रचना के समय उन के पुत्र नन्न' उक्त पद को विभूषित कर रहे थे। उन्हीं की प्रेरणा से उन्हीं के शुभतुंग प्रासाद में रहते हुए कवि ने उक्त दो काव्यों की रचना की। इन काव्यों में यथावसर ‘नन' की ही कीर्ति वर्णित है। इस समय या तो भरत की मृत्यु हो चुकी थी या उस समय की प्रथा के अनुसार वे अपने चौथे पन में संसार से विरक्त हो, गृहभार अपने सुयोग्य पुत्र को सौंप, मुनि-धर्म का पालन करने लगे थे। आश्चर्य है कि कवि ने अपने कास्यों में इस विषय का कोई उल्लेख नहीं किया। 'नागकुमार चरित' की रचना के समय कवि के माता पिता भी स्वर्गवासी हो चुके थे। ___ हम ऊपर सिद्ध कर चुके हैं कि कृष्णराज की मृत्यु महापुराण पूर्ण होने से पूर्व ही हो चुकी थी। पर ' यशोधर चरित' और ' नागकुमार चरित' में जो वल्लभराय का उल्लेख आया है उस पर भी महापुराण के समान 'कृष्णराज' ऐसा टिप्पण पाया जाता है। टिप्पणकर्ता की यह अवश्य भूल है। वहां 'वल्लभराय' से कृष्णराज के उत्तराधिकारियों का तात्पर्य लेना चाहिये। यह हम देख ही चुके हैं कि राष्ट्रकूट वंशी सभी राजा 'चल्लभराय' कहलाते थे। ___महापुराण, यशोधर चरित और नागकुमार चरित के अतिरिक्त भी महाकषि पुष्पदन्त ने कोई ग्रंथ रचे या नहीं, इस के जानने के लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। [नागकुमार चरित की उत्थानि का का कुछ भाग] पणवेप्पिणु भावे पंच गुरु, कलिमल वजिउ गुणभरिउ। . आहासमि सिय पंचमिहे फलु, णायकुमार चारु चारेउ ॥ दुविहालंकारें विप्फुरंति । लीला कोमलइ पयाई दिति। मह कव्व निहेलणे संचरंति । बहु हाव भाव विभम धरंति ॥ घत्ता। सिरिकन्हराय करयलनिहिय असिजलवाहिणि दग्गयरि। धवलहर सिहरिहय मेहउलि पविउल मण्णखेडनयरि ॥१॥ मुद्धाई केसव भट्ट पुत्त । कासव रिसि गोत्ते विसाल चित्त । णण्ण हो मंदिरे णिवसंतु संतु। अहिमाण मेरु गुण गण महंतु ॥ पत्थिउ महि पणवियसीसएण । विणएण महोदैहि सीसएण ॥१॥ दुरुाज्झिय-दुक्किय-मोहणेण । गुणधम्में अवरवि सोहणण ॥ भो पुप्फयंत पड़िवण्णपणय । मुद्धाएवि केसइय तणय। २८ 'महु पियराई होन्तु सुहधामइ ' । १ महोदेर्धनाम्नः शिष्येण, Aho! Shrutgyanam
SR No.009880
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages176
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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