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________________ अंक ३] महाकवि पुष्पदन्त के समय पर विचार [५३ परिच्छेद में उल्लेख किया है वह वि० सं० १०२२ से पश्चात् नही हो सकती। पर धनपाल की 'पायलच्छी नाम माला में उस घटना के उल्लेख से ऐसा मालूम पड़ता है कि वहः उस ग्रंथ के समाप्त होने के वर्ष वि० सं० १०२९ में ही हुई थी। इस विरोध का परिहार कैसे हो ? उदयपुर प्रशस्ति से सिद्ध है कि उक्त घटना के समय मान्यखेट के सिंहासन पर 'खोट्टिगदेव' आरूढ थे। ‘खोट्टिग' के उत्तराधिकारी ककराज का एक दानपत्र शक सं० ९९४ (वि० सं० १०२९) आश्विन शुक्ल १५ का मिला है। उस से सिद्ध होता है कि 'खोट्टिग' की मृत्यु आश्विन शुक्ल १५ सं० १०२९ से पूर्व ही हो चुकी थी और उस समय तक हर्षदेव के भीषण आक्रमण के पश्चात् इतना समय बीत चुका था कि राजधानी में फिर से शान्ति और सुप्रबंध स्थापित हो जाय । यदि ऐसा न होता तो उक्त समय में मान्यखेट के राजा को दान पत्र निकालते बैठने का अवकाश न मिलता। इस से अनुमान किया जा सकता है कि वि०सं० १०२९ में उक्त घटना कम से कम पांच सात वर्ष पुरानी हो चुकी थी। हर्षदेव का आक्रमण मलयखेट पर कब हुआ इस का कुछ अनुमान इस प्रकार लगाया जा सकता है। 'महापुराण' 'सिद्धार्थ' संवत्सर में प्रारम्भ हो कर क्रोधन संवत्लर में समाप्त हुआ था । अतः उस के १०२ परिच्छेदों की रचना में कवि को छह वर्ष लगे, जिस की औसत एक वर्ष में १७ परिच्छेदों की आती है। कवि कविने मान्यखेट की लूटमार का उल्लेख आदिपुराण के ३७ व उत्तर पुराण के ४९ परिच्छेद पूर्ण हो जाने पर किया है। उत्तर पुराण के शेष १६ परिच्छेदों की रचना में कवि को अधिक से अधिक एक वर्ष लगा होगा । अतः वि० सं० १०२२-१% १०२१ के लगभग मान्यखेट की लूटमार होना सिद्ध होता है। लगभग आठ वर्ष पुरानी घटना का वि० सं०१०२९ में हुई जैसी उल्लेख करने का यह कारण हो सकता है कि हर्षदेव मान्यखेट पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् और कई प्रदेशों को जीतते हुए वि० सं० १०२९ में धारा राजधानी में पहुंचे होंगे । इस विजय यात्रा में मान्यखेट की विजय ही सबसे अधिक कीर्तिकारी हुई होगी। इसी से धनपाल ने उस का उल्लेख विशेषरूप से किया। ऐसी यात्रा में सात आठ वर्ष व्यतीत हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। ___ महापुराण की उत्थानिका से विदित होता है कि पुष्पदन्त किसी राजा द्वारा सताये हए मान्यखेट पुर को आये थे। आंध्र-कर्नाटकदेश में विक्रम की १० वीं शताब्दि तक तो जैन-धर्म का खूब जोर रहा और वहां के राजा जैन आचार्यों की अच्छी भक्ति करते रहे, पर दशवीं शताब्दि के अन्तिम भाग में वहां शैवधर्म का प्राबल्य बढा और जैनियों को आपत्ति पहचाने जाने लगी। 'वारंगाल कैफियत' से जाना जाता है 'राजराज नरेन्द्र' के समय में वहां के एक बड़े जैन आचार्य · वृषभनाथ तीर्थ' को राजधानी 'राजमहेन्द्री' छोड़ कर वारंगाल भाग आना पड़ा जेस का कारण उन का राजराजनरन्द्र द्वारा सताया जाना हो विदित होता है। यह राजा कट्टर शैव था, जो सन् १०२२ ( शक ९४४ ) में राजमहेन्द्री के तख्त पर बैठा। क्या आश्चर्य यदि महाकवि पुष्पदन्त भी यहीं के किसी ऐसे ही राजा द्वारा सताये हुए मान्यखेट आये हों। मान्यखेट के राष्ट्रकूट नरेश जैनधर्म में श्रद्धा और जैन कवियों को आश्रयदान के लिये खूब विख्यात थे। यही नहीं, उन में से कई स्वयं अच्छे कवि हुए हैं । 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' के कर्ता अमोघवर्ष प्रसिद्ध ही है। इन्हीं की छत्र-छाया में जिनसेन, गुणभद्र, सोमदेव, महावीराचार्य आदि धुरंधर जैनाचार्यों ने वह जैनधर्म की ध्वजा फहराई थी। मान्यखेट में जैन कवियों का २६ Ind. Anti. Vol XII p. 263. २७ Studies in South Indian Jainism. p. 18. Aho! Shrutgyanam
SR No.009880
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages176
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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