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________________ अंक १] wwwranwwwwwzawinawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwsarwwwwwwwwwws महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्चैमि, हउ कयपंजलियरु श्रोहच्छमि ॥ १६ ॥ घता। अथिरेण असारे जीविएण, किं अप्पउ सम्माहाह। तुहु सिद्धहे वाणीघेणुअहे, णवरसखीरु ण दोहाहं ॥१०॥ तं णिसुणोप्पणु दर विहसते मित्तमुहारविंदु जोयते । कसणसरीरे सुद्धकुरूवे, मुखाएविगब्भि संभूवें ॥ ११ ॥ कासव गोत्ते केसव पुत्ते, कर कुलतिलपं सरसोणिलएं । उत्तमसत्ते, जिणापयभत्ते ॥१२॥ (?) पुप्फयंत करणा पडिउत्तउ, भो भो भरह णिसुणि णित्तक्खुत्त । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउँ, णिग्घिणु णिगुणु दुण्णयगारउ ॥१३॥ जो जो दीसह सो सो दुज्जणु, णिप्फलु णीरसु णं सकउ वणु । राउ राउणं संझहे केरउ, अंत्थे फ्यदृइ मणु ण महार उ । उन्वेउ जे वित्थरइ णिरारिउ, एकु वि पैउ विरएवउ भारिउ ॥१४॥ । घत्ता । दोसेणे होउ तं उ भणमि चोज्ज अवरुमणे थक्कर। जगुएउ चडाविउ चौउजिह तिह गुणेण सहवंकउ ॥ जयवि तो विजिणगुणगणु वएणमि, कि हं पई अब्भत्थिउ अवगण्णमि। कोई अपराध बन पडा है अथवा और किसी रस का उमाह हुआ है अर्थात् कोई दूसरा काव्य बनाने की इच्छा हुई है ? बोलो, बोलो, मैं हाथ जोड कर तुम्हारे सामने खडा हूँ, तुम जो कुछ कहोगे मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूं ॥ ९॥ इस अस्थिर और असार जीवन से तुम क्यों आप को सम्मोहित कर रहे हो ? तुम्हें वाणीरूप कामधेनु सिद्ध हो गई है, उस से तुम नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? ॥ १० ॥ यह सुनकर मुसकराते हुए और अपने मित्र के मुखकमल की, ओर निहारते हुए कशशरीर, अतिशय कुरूप, मुग्धादेवी और केशव ब्राह्मण के पुत्र, काश्यपगोत्रीय, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, दृढव्रत और जिनपदभक्त पुष्पदन्त कवि ने प्रत्युत्तर दिया कि, हे भरत, यह निश्चय है कि इस कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण और दुनौतिपूर्ण विपरीत काल में जो जो दिखते हैं सो सब दुर्जन हैं,सब सुखें हुए वन के समान निष्फल और नीरस हैं। राजा लोग सन्ध्याकाल की लालिमा के सदृश हैं। इस लिए मेरा मन अर्थ में अर्थात् काव्य रचना में प्रवृत्त नहीं होता है। इस समय मुझे जो उद्वेग हो गया है, उस से एक पद बनाना भी मेरे लिए भारी हो गया है ॥ ११-१४ ॥ यह जगत यदि दोष से वक्र होता तो मेरे मन में आश्चर्य नहीं होता किन्तु यह तो चढ़ाये हुए चाप (धनुष) सदृश गुण से भी वक्र होता है (धनुष की डोरी 'गुण' कहलाती है । धनुष गुण या डोरी चढ़ा ने से टेडा होता यद्यपि जगत की यह दशा है तो भी मैं जिन गुणवर्णन करूंगा। तुम मेरी अभ्यर्थना करते हो. तब मैं तम्हारी अवगणना कैसे कर सकता हूं ? तुम त्याग भोग और भावोद्गम शक्ति से और निरन्तर की जानेवाली कविमैत्री से २१ सर्वे प्रतीच्छामि । २२ एष तिष्ठामि । २३ तव सिद्धायाः । १ भरतस्य । २ सुष्ठ कुरूपेण । ३ मुग्धादेवी । ४ वाणीनिलयेन मन्दिरण। ५ सत्वेन दृढव्रतेन । ६ निश्चितं । ७ विपरीतः । ८ शुष्कवनमिव जनः । ९ राजा सन्ध्यारागसहशः । १. शब्दार्थे न प्रवर्तते । ११ एकमपि पदं रचितुं भारो महान् । १२ दोषेण सह जगत् चेत् वकं भवति तदाश्चर्य न, किन्तु गुणेनापि सह वक्रं तदाश्चर्यमाञ्चित्ते । १३ चापः। Aho I Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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