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________________ 981 जैन साहित्य संशोधक परिशिष्ट नं० २ ( उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश । ) मणे जाएण किंपि श्रमणोज्जे, कइवयह दिन केण विकज्जै । गिव्विण्णउ हिड जाम महाका, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥ १ ॥ भणई भडारी सुहयकैश्रहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेदं । इय सिवि विद्धउ कइवरु, सयलकलाय गं छण ससहरु ॥ २ ॥ दिसउ सिंहाला किं पि ग पेच्छा, जा विंभियमा गियघरे अच्छा । ताम पराइ यवंतै, मउलिय, करयलेण पण वर्ते ॥ ३ ॥ दस दिस पसरिय जसतरुकेंदे, वरमहमत्तवंसण र्हेचंदें । छणससिमंडल सहि वयर्णे, राव कुवलयदलदीहरण्यर्णे ॥ ४ ॥ घत्ता । खल संकुले काले कुसलमइ विणड करेपिणु संवैरिय । वच्चंति विसुराण सुसुराणवहे जेणसरासह उद्धरिय ॥ ५ ॥ ईणु देवियहवत जाएं, जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं । जिणवर समयहेिलेणखंभे, दुत्थियमित्ते ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयरहारणिव्वहर्णे, विउसविर सयभय मिहरों । तेश्रोहामिय पवरक्खरेंदें, तेरा विगेटवे भवें भर ॥ ७ ॥ वोल्लाविउ कइ कव्वपिसल्लउ, किं तुहुं सचउ वप्पर्गेल्लिउ । किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु, गंथकरणे किं ण करहि शियमणु ॥ ८ ॥ किं कि काई विमई अवरोह, अवरु कोवि किं वि रेंसुम्माहउ । [ खण्ड २ कुछ दिनों के बाद मन में कुछ बुरा मालूम हुआ । जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तब सरस्वती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥ १ ॥ भट्टरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो । यह सुनकर तत्काल ही सकलकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया । उन्हें बडा विस्मय हुआ । वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान हैं, ॥ २-४ ॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥ ५ ॥ जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानां को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम हैं, गर्वरहित हैं और भव्य हैं। ॥ ६-७ ॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहृनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्थरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता ? ॥ ८ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा १ सरस्वती । ३ सुष्ठु हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेघं । ४ गतनिद्रो जागरितः । ५ आकार | ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः । ८ कन्दो मेघः । ९ महामात्र - महत्तर । १० चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिताः सरस्वती । १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद | १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे । १९ अपराधः । २० अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं । Aho ! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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