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________________ vvvvvvvv अक ] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण परिशिष्ट नं. १ (आदिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।) ओं नमो वीतरागाय । सिद्धिवडूमणरंजणु परमनिरंजणु भुश्रणकमलसरणेसरु । पणवेवि विग्धधिणासणु निरुवमसासणु रिसहगाहपरमेसरु॥ ध्रुधकम् ॥ तं कहमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्यवरिसे भुषणाहिरामु । उवद्धज्जूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोडहो तणउं सीसु ॥ १।। भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छइ तुडिगु महाणुभाउ । तं (बं?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, दियदेहिं पराइउ पुष्फयंतु । दुग्गमदीहरपंथेगरीd, णव इंदु जेम देहेण खीणु ॥ ३ ॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर, मायंदगुंछ गुंदलियकीर । गंदणवणे किर वोसमइ जाम, तहिं विणि पुरिस संपत्त ताम ॥४॥ पणवेप्पिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलव । परिभमिरभमररघगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरबहिरिय दिश्चक्केवाले, पइसरहिण किं पुरवरविसाले । तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, परि खजउ गिरकंदरकसेरु ॥६॥ रणउ दुजणभउंहा वंकियांई, दसिंतु कलुसभाकियाई ।। घत्ता । वरुणरवरु धवलच्छिह, होउ मकुच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुधयणई, भिउडियणयण, मणिहालउ सूरुग्गमे ॥७॥ चमराणिलउडावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणत्तणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवस्तर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुडिगुने चोड राजा का सुन्दर जटायुक्त और भ्रकुट भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया। इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वारा अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये । दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ नन्दन वन नामक उद्यान में विश्राम ले रहे थे जहां का वायु पुष्पों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीडा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥ ४ ॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनेवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते? यह सुन कर आभिमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेना अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुषित टेढी भोंहें देखना अच्छा नहीं ॥५-६ ॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कुंख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन सवेरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥ ७ ॥ वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो, आभिषेक के जल सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कृष्णराजः। ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गेणागतः । ५ मन्दतेजः। ६ मिलित -७ पुष्पदन्तः । ८ हस्तिशब्दात् । ९ दिक्चवक्रवलये। Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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