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________________ महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण | [ अपभ्रंश भाषा का एक महाकवि और महान् ग्रन्थ । ] ( लेखक - श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी । ) भारत में अनेक शताब्दियों तक जो श्रार्य भाषायें प्रचलित रही हैं, वे सब प्राकृत कहलाती हैं । प्राकृत शब्द का अर्थ है स्वाभाविक - कृत्रिमता के दोष से रहित और संस्कृत का अर्थ है संस्कार की हुई मार्जित भाषा । वैदिक सूक्त जिस सरल और प्रचलित भाषा में लिखे गये थे, उस भाषा को प्राकृत ही कहना चाहिए । इस श्रादि प्राकृत भाषा से जिन सब श्रार्य भाषाओं का विकास हुआ है, उनकी गणना दूसरी श्रेणी की प्राकृत में होती है । यह द्वितीय श्रेणी की प्राकृत अशोक के शिलालेखों में मिलती है । बौद्धशास्त्रों की प्रधान भाषा पाली भी इसी दूसरी श्रेणी की प्राकृतों में से है । इस समय प्राकृत कहने से पाली की अपेक्षा उन्नत भाषा का बोध होता है । अशोक के समय की श्रार्य भाषा की दो प्रधान शाखायें थीं, एक पश्चिमी प्राकृत और दूसरी पूर्वीय प्राकृत । पश्चिमी प्राकृत को सौरसेनी या सूरसेन (मथुरा) की भाषा कहते थे और पूर्वीय को मागधी या मगध की भाषा । इन दोनों पूर्वीय और पश्चिमी भाषाओं के बीचों बीच एक और भाषा बोली जाती थी जो अर्ध मागधी के नाम से प्रसिद्ध थी । कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने इसी भाषा के द्वारा अपने सिद्धांतों का प्रचार किया था। प्राचीन जैन ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे गये थे । प्राचीन मराठी के साथ इस भाषा का बहुत ही निकट सम्बन्ध है । प्राचीन प्राकृत काव्य इसी प्राचीन मराठी में लिखे गये हैं । उक्त दूसरी श्रेणी की प्राकृत भाषाओं के बाद की भाषा अपभ्रंश कहलाती है । जो दूसरी श्रेणी की प्राकृत का पिछला और विशेष विकसित रूप है । यों अपभ्रंश का साधारण अर्थ दुषित या विकृत होता है; परन्तु भाषा के सम्बन्ध में प्रयुक्त होने पर इस का अर्थ उन्नत या विकसित होता है । वर्तमान प्रचलित आर्य भाषायें जिन भाषाओं से निकली हैं, उनकी गणना अपभ्रंश में होती है । इन अपभ्रंश भाषाओं में भी एक समय अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये थे जिनमें से बहुत से इस समय भी मिलते हैं। जान पड़ता है, इन भाषाओं का साहित्य बहुत प्रौढ़ हो गया था और सर्वसाधारण में बहुत ही श्रादर की दृष्टि से देखा जाता था । इस साहित्य में हम उस समय की बोलचाल की भाषाओं की अस्पष्ट छाया पा सकते हैं । विक्रम की सातवीं शताब्दि तक के अपभ्रंश साहित्य का पता लगा है । इसके बाद जान पड़ता है कि इस भाषा का प्रचार नहीं रहा । अपभ्रंश के पहले की प्राकृत भाषाओं का प्रचार दसवीं शताब्दि के बाद नहीं रहा । उक्त अपभ्रंश भाषाओं की गणना दूसरी श्रेणी की ही प्राकृत में की जाती है । उनके बाद धुनिक भाषाओं का काल श्राता है जिन्हें हम तीसरी श्रेणी की प्राकृत में गिनते हैं । इन भाषाओं का निदर्शन हम तेरहवीं शताब्दि के लगभग पाते हैं। अतएव मौटे हिसाब से कहा जा सकता है कि दशवीं शताब्दि से आधुनिक आर्य भाषाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ है और अपभ्रंश से ही इन सब का विकास हुआ है । संक्षेप में प्राकृत भाषाओं का यही इतिहास है । Aho ! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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