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________________ ग्राहक वर्गने नम्र निवेदन. जैन साहित्य संशोधन। अंको नियमित समये ग्राहकोने नथी मळी शकता तेथी अनेक सज्जनो अकळाय छे अने केटलाकने तो संपादक सुधांने ठपकाना पत्रो लखवा जेटली तस्दी लेवी पडे छे. आ स्थिति जिज्ञासु अने ज्ञानपिपासु सज्जनोने जेटली असह्य लागे छे ते करतां मने पोताने अनेक गणी दुःखभरी लागे छे. परंतु ए स्थितिमा परिवर्तन करवानी बनती कोशीशो करवा हुंकोटलो उत्सुक छु एनी कल्पना ग्राहकोने शीरीते करावी शकुं? आ खंडनो १ लो अंक गया वर्षना जेठमासमां प्रकट थयो हतो, ते पछी आजे पार्छ, आ वर्षना जेठ मासमां, आ बीजो अंक प्रकट थाय छे. एटले वर्षमा एक अंक बहार पडयो. बारबार महिना सुधी ग्राहकोने अंक न मळे अने ते बदल जो ग्राहक योग्य फर्याद करे तो तेमां तेमनो जराए दोष हुँ काढी न शकुं; उलटं, हुं तो एवा सज्जनोनो आभार ज मार्नु. जैनसाहित्य संशोधकना ग्राहक वर्गमां ५-७ पण सज्जनो एवा ज्ञानपिपासु छे के जेओ एना अंकनी कागने डोळे वाट जोयां करे, ते जोईजाणीने मने तो एक प्राकारे संतोष ज थाय छे. हवे, आ पत्रनी आटली बधी अव्यवस्था केम छे, ते संबंधमां बे वातो ग्राहकोने कही दउं. आ पत्रनु कार्यालय जे छ ते फक्त आ अक्षरो लखनार माणसनुं एक फुट पहोळ अने छ फट लांबु दर्बळ शरीर छे ते ज मात्र छे, ए करतां वधारे साधन-संपत्ति हजीसुधी भेगी थई नथी. अने तेमां वळी आ शरीर जेम आ पत्रनु कार्यालय बनी रह्यं छे तेवी ज रीते बीजां पण एवां केटलांए कार्योन कार्यालय थई रहेढुंछे. लेखो तैयार करवानी शुरुआतथी लई अंकने ठेठ पोष्टमां नांखवाजवा सुधीनी सघळी क्रियाओ ज्यां एक ज शरीरने करवानी होय त्यां बार-महिने पण एक अंक प्रकट थई जाय छे ते माटे जो हुँ मारी जातने शाबाशी आपवानी ग्राहको पासे मांगणी करूं तो तेमणे ते खुशीथी आपवी जोईए.. आम छतां, हुं पत्रने जेमबनेतेम वधारे नियमित करवानी कोशीश तो कर्यां ज करूं छं. पण तेनी सफळतानो आधार ग्राहकोनी ज्ञानरुचि उपर रहेलो छे. जो ग्राहक संख्या संतोषजनक प्रमाणमां होय तो एकाद व्यवस्थाकरनार मनुष्यनी गोठवण कार्यालय करी शके अने ते द्वारा उपरनी केटलीक व्यवस्था नियमित थई शके. ग्राहकसंख्या अत्यारे तो नामनी ज छ; अने पत्र पाछळ थता खर्चनो चोथो भाग पण पूरो ग्राहकोना लवाजमथी कार्यालयने मळतो नथी. आवा खोटना मार्गे कोई पण पत्र चाली शकतुं नथी ए सौ कोई जाणे छे. वधारे नहि तो पांचसो ग्राहक पण जो पूरा मळी रहे तो पत्रनो कारभार ठीकठीक नभी शके. आवडा मोटा अने सुसंपन्न जैनसमाजमाथी आवा पत्रने एटला पण ग्राहको न मळे ते समाजने लज्जाकारक छे. ए बाबतम ग्राहकवर्ग जो सहज प्रयत्न करे अने दरेकजण अकेक बब्बे बर्बाजा नवा ग्राहको मेळवी आपे तो सहजे एटली ग्राहक संख्या पूरी थई रहे तेम छे. शु सज्जन ग्राहक आनो उत्तर आपवानी उदारता अने पोतानी साहित्यप्रियता बताववा कमर कसशे ? -संपादक त्रीजो अंक तैयार थाय छे. त्रीजो अंक लगभग अडधा उपर छपाई गयो छे. एमां खासकरीने खरतर गच्छनी अनेक पट्टावलियो अने महत्वना लेखो आवशे. खरतरगच्छनो उज्ज्वल इतिहास जाणवानी इच्छावाळाए आ अंक अवश्य जोवो जोईए. -व्यवस्थापक. Aho ! Shrugyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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