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________________ अंक ४ ] हेतु वह है जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धी हो । यह हेतु साध्यका चिन्ह या संबंधी हुआ करता है; जैसे अग्निका चिन्ह धुंवा । क्यों कि धुंवा किसी और बस्तुका चिन्ह नहीं हैं । कारण यह कि धुंवा अग्नि हीसे पैदा होता है; और अभिके अभावमें नहीं पैदा हो सकता । अतः वह अग्नि हीका चिन्ह है और इसी कारणसे तुरन्त अग्निका बोध करा देता है । हेतु दो प्रकार का देता है, विरुद्ध व अविरुद्ध | विरुद्ध - वह है जो साध्यके विरोधी का चिन्ह हो और जिससे साध्य के प्रतिकूल नतीजा नि कले । जैसे इस घडेमें आग नहीं है; क्योंकि.. यह पानीसे भरा हुआ है । यहां पानी अनिका विरोधी है । अतः अझिके अस्तित्वका निषेध करता है । बातम्याच । अविरुद्ध हेतु - वह है जो सरलता पूर्वक साध्यके अस्तित्वको सिद्ध करता है । जैसे इस पहाड़ की चोटीपर आग है, क्यों कि वहांसे रहा है । ( विभिन्न उदाहरण ) (क) अविरुद्ध-विधि - साधक अर्थात् जिनसे अस्तित्व सिद्ध हो । जैसे- 1 १२७ ३ यहां छाया है; क्योंकि छत्र मौजूद है । यहाँ समर्थ कारणसे कार्यका बोध हुआ । ४ -- कल इतवार होगा; क्यों कि आज शनिवार है। यहां पूर्व - पक्षसे, उत्तर-पक्षका ज्ञान हुआ । ५ – कल इतवार था; क्यों कि आज सोमवार है । यहां उत्तर-पक्ष पूर्व-पक्ष का ज्ञान हुआ । ६ - इस आममें रस है, क्यों कि यह पका हुआ पीछे रंगका है । यह सहचरका उदाहरण है । (ख) विरुद्ध - निषेध - साधक | ७ – यहां शीत स्पर्श नहीं है; क्यों कि व्यग्नि-ताप मौजूद है। यहां अग्नि, शीत से विरुद्ध है और ताप, अग्नि का व्याप्य है। अतः वह अग्रि का ज्ञान कराता है । ८ – यह मनुष्य अस्वस्थ है, क्यों १ - शब्द परिणामी होता है; क्योंकि वह क्रियासे उत्पन्न होता है । यह उदाहरण व्याप्य - व्यापकके संबध में है; जिसका पुरा रूप इस प्रकार बैठता है । शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह कार्यसे उत्पन्न होता है । जो जो किये हुये होते हैं वे वे पदार्थ परिणामी होते हैं। जैसे: घट | उसी प्रकार शब्द भी किया जाता है, अतएव वह भी परिणामी होता है । अथवा जो पदार्थ परिणामी नहीं होते वे किये भी नहीं जाते । जैसे वन्ध्या स्त्रीका पुत्र । बस उसी प्रकार शब्द कृतक होता है. इसी कारण परिणामी भी होता है । F २ - इस प्राणीमें बुद्धि है; क्यों कि बुद्धिके कार्य वचन आदि इसमें पाये जाते हैं । यहाँ बुद्धि साध्य है और बचनादि हेतु । कार्यसे कारणका ज्ञान होता है । कि शय्याप्रत्त्व । यह उदाहरण कार्यसे कारण के निषेधाका ज्ञान विरुद्ध रूप से कराता है। क्यों कि स्वास्थ्यके निषेधका बोध होता है—उसके विरोधी बीमारी के कार्य अर्थात् शय्याग्रस्त होने से । ९ - इस जीवको सुख नहीं है; क्यों कि उसके हृदयमें व्यग्रता मौजूद है। यहां दुखका कारण हृदयकी व्यग्रता है । अतः वह दुखको जमावेगी और दुखके अस्तित्वमें - जो सुखका विरोधी है- सुख का होना असम्भव है ही । १० कल इतवार नहीं होगा; क्यों कि आज शुक्र है । यह उदाहरण पूर्व-पक्षेत्र उत्तर-पक्षका है । शुक्रवार यहां शनिवारका विरोधी माना गया 1 ११- कल शुक्रवार नहीं था, क्यों कि आज मंगल है । यहां मंगलको बृहस्पतिका विरोधी मानकर उत्तर पक्षसे पूर्व पक्षका अनुमान किया है । १२ - इस भीतमें उस मोरके भागका अभाव नहीं है; क्यौं कि इस ओरका भाग मौजूद है । यह सहचरका दृष्टान्त हुआ । ( ग ) अविरुद्ध - निषेध - साधक । १३ - इस नगर में शीसम नहीं है; क्यौं कि यहां Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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