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________________ १२६ जैन साहित्य संशोधक. [खा. २-कार्यसे कारणका ज्ञान । इस लिये जब कभी तुम धुवा देखो तो मनमें उदाहरण-धुंवेसे अग्निका बोध । तुरन्त नतीजा निकाल सकते हो कि वहां अग्नि ३-पूर्व पक्षसे उत्तर पक्षका बोध । अवश्य होगी; किन्तु अग्निको देख कर तुम यह नहीं उदाहरणः-१-रविवारके पश्चात सोमवारका होना । कह सकते कि धुंवा भी वहां है । क्यों कि धुंवा तो २-शैशव कालके पश्चात् युवावस्था । बिना आगके हो नहीं सकता; किन्तु आग बिना ३-युवावस्थाके पश्चात् वृद्धावस्था । धुंवाके भी हो सकती है । जैसे सुलगते हुये अंगारे ४-उत्तरपक्षसे पूर्वपक्षका ज्ञान । की आग | और आग तथा धुंवेके पारस्परिक संबउदाहरण-१रविवारके पूर्व शनिवारका बोध । धसे तुम यह भी नतीजा निकाल सकते हो कि जहां ___ -२बुढापेसे पूर्व युवावस्था। जहां आग नहीं होती वहां वहां धुंवा भी नहीं होता । ५-एक साथ होनेवाली बातोंका ज्ञान । क्यों कि धुंवा बिना आगसे नहीं होता । यह 'ऋणरूप' उदाहरण-१ जैसे वय और अनुभव । -२ बालकापन और अबोधता। बस यह प्रकट है कि आग और धुंवेके संबंधसे -३ फलमें उसके पकनेके चिन्ह ४ नतीजे निकलते हैं। और उसका स्वाद विशेष । १-अग्निका ज्ञान धुंवेके ज्ञानसे । ६-व्याप्य-व्यापक अर्थात् कुलमें जुज (अंश) २-धुवेके अभावका ज्ञान अग्निके अभावके ज्ञानसे। शामिल है; या यों कहो कि जातिके गुण ३-वुवेका ज्ञान अग्निके ज्ञानसे । व्यक्तिमें पाये जाते हैं। ४-अग्निके अभावका ज्ञान धुंवेंके अभावके ज्ञानसे। उदाहरण-१ इस फुलवाडीमें कोई फलदार इनमेंसे पहिले दो तो नियमानुसार हैं और इस वृक्ष नहीं है। अतः इसमें आ- कारणसे ठीक है । और पिछले दो नियमके प्रतिकूल म भी नहीं है। - है अतः ठीक नहीं । जहां अन्वय और व्यतिरेककी तुलना होती है, वहां नियम सिद्ध समझा जाता अध्यापकका कर्तव्य होगा कि इन ६ प्रकारके निय- है । यथामोंको भली भांति बालकोंको समझा दे और नाना १-जहां जहां धुंवा होता है वहां वहां अग्नि होती प्रश्नों द्वारा इस बातका भी निश्चय करा दे कि केवल है । ( अन्वय) ६ ही प्रकार के नियम प्रकृति में हैं-न्यूनाधिक नहीं। २-~-जहां जहां अग्नि नहीं होती वहां वहां धुंवा भी नही होतां । (व्यतिरेक) चतुर्थ पाठ बच्चो! पश्चम पाठ न्यायका सिद्धान्त “ धनरूप" नियमसे निकाला बच्चो ! जा सकता है, जिसको " अन्वय' कहते हैं। इस उदाहरणमें कि " इस पहाडपर अग्नि है, क्यों उदाहरण-जहां कहीं धुंवां है; वहां आग्नि कि इसपर धुंवा है" अग्निको साध्य कहते हैं और धुंअवश्य है। वेको हेतु । नोट-सप्ताह दो सप्ताहमें जब यह बात छात्रगण समझ जायें साध्य वह कहा लाता है जो सिद्ध किया तो फिर आगे बढ़े। जाय । Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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