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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे अपेक्षा छोटे हैं, इसीलिए जान पडता है कि श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे xxx॥" इसकी प्रति लिखनेवालेने इसके नामके साथ बृहइससे जान पडता है कि उस समय यह नगर १ त् विशेषण लगा दिया है । ग्रंथकर्ताने स्वयं इसे बहुत समृद्धिशाली था और अनेक जैनमन्दिरोंसे 'कथाकोश 'ही लिखा है। सुशोभित था । वहाँके नन्नराजके बनाये हुए पार्श्व- हमको इस कथाकोशकी सब कथायें पढनेका नाथालय नामक जैनमन्दिरका-जहाँ कि हरिवंश- अवसर नहीं मिला । है भी वे बहुत मामूली और पुराण समाप्त हुआ था-और भी कई ग्रन्थों में उल्ले- विशेषत्वहीन । कुछ कथायें ऐतिहासिक पुरुषोंसे ख मिलता है। सम्बन्ध रखनेवाली हैं, जैसे चाणक्य, शकटाल, यह ग्रन्थ विनयपाल नामक राजाके समयमें और भद्रबाहुः परन्तु वे भी वास्तविक इतिहाससे लिखा गया है। प्रन्थप्रशस्तिसे यह मालम नहीं कम सम्बन्ध रखती हे-केवल जैनधर्मकी माहिमा होता है कि विनयपालकी राजधानी कहाँथी। संभ- बढानेके उद्देश्यसे लिखी गई हैं। वतः वह वर्धमानपुरमें ही होगी। हम इस बातका इसमें भद्रबाहुकी जो कथा लिखी गई है उसमें पता नहीं लगा सके कि विनयपाल किसवंशका दो बाते बडी विलक्षण हैं और पुरातत्त्वज्ञोंके ध्याराजा था; परन्तु संभवतः वह राष्ट्रकूट राजाओं- नमें रहने योग्य हैं। एक तो यह कि, भद्रबाहुने १२ का माण्डलिक होगा और चतुर्थ गोविन्द या सुवर्ण वर्षका घोर दुर्भिक्ष पडनेका निश्चय करके अपने वर्षका समकालीन होगा जिसने शक संवतू ८५६ शिष्यों को ही दक्षिणापथ तथा सिन्ध्वादि देशोको तक राज्य किया था। भेज दिया था; पर वे स्वयं उज्जयिनीमें रहे और __ यह कथाकोश किसी — आराधना ' नामक कुछ दिनोंमें उज्जयिनीके निकट भाद्रपद-(भेलग्रन्थसे उद्धृत करके, सारांश रूपमें या उसके सा?) नामक स्थानमें स्वर्गवासी हो गये। दूसरे, सहारेसे लिखा गया है, यह बात प्रशस्तिके आठवे उज्जयिनी के राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके समीप श्लोकके ' आराधनोध्दतः ' पदसे मालूम होती दीक्षा ले ली थी और वे ही पीछे विशाखाचार्यके है। ऐसी दशामें कहना होगा कि इस ग्रन्थकी नामसे प्रसिद्ध हुए थे । वे भद्रबाहुके समीप न कथायें आधिक नहीं तो हरिषेणके समयसे लो दो रह कर दक्षिणापथको चले गये थे । अन्य कई सो वर्ष पहले की अवश्य होंगी। कथाओंके और शिलालेखोंके अनुसार भद्रबाहु दिगम्बर सम्प्रदायमें ‘आराधना-कथाकोश ' आचार्य भी दक्षिणापथको गये थे और उनका स्व. नामके दो संस्कृत कथाकोश और भी हैं । इनमेंसे एक प्रभाचन्द्र भट्रारकका बनाया हा गद्यमें है १ भद्रबाहुमनिधारा भयसप्तकवजितः। और दूसरा मल्लिभूषणके शिष्य नेमिदत्त ब्रह्मचा पंपाक्षुधाश्रमं ती जिगाय सहसोस्थितम् ॥ ४२ रीको पद्यमें है। यह दूसरा प्रथमका पद्यानुवाद प्राप्य भाद्रपदं देशं धीमदुज्जयिनीभवम् । मात्र है। ये दोनों कथाकोश इस कथाकोशकी चकारानसनं धारः स दिनानि बहून्यलम् ॥ ४३ आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम् । १-नेमिदत्त ब्रह्मचारी वि० सं० १५७५ के लगभग समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥ ४४ हुए हैं। २ भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः। २-देवेन्द्रचन्द्रार्कसमर्थितेन तेन प्रभाचन्द्रमुनीश्वरेण । अस्यैव योगिनं पावें दधी जैनेश्वरं तपः॥१८ अनुग्रहार्थं रचितं सुवाक्यराराधनासारकथाप्रबन्धः ।। ६ ॥ चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूर्षिणाम् । तेन क्रमेणैव मया स्वशक्त्या श्लोकः प्रसिद्वैश्च निगद्यते सः। सर्वसंघाधिपो जातो विशाखाचार्यसंज्ञकः ॥३९ मार्गेण क भानुकरप्रकाशे स्वलीलया गच्छति सर्वलोकः ॥णा अनेन सह संघोपि समस्तो गुरुवाक्यतः। -नेमिदत्तरुत कथाकोश । दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ ।। ४० Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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