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________________ अंक १] हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय । होता है । टिप्पणीलेखकके कथनानुसार यदि विरोधी सिद्ध किया गया है । वादी देवसूरीके "त्रिरूपालिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं " यह सूत्र तद्विषयक सब लेखांश इस प्रकार है:-- धर्मोत्तरके बनाये हुए किसी ग्रंथमेका है तो यहां पर (१) अत्राह धर्मोत्तरः-लक्ष्यलक्षणभावविधायह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह धर्मोत्तर कौन और नवाक्ये लक्ष्ममनद्य लक्षणमेव विधीयते । लक्ष्य हि कब हुए। धर्मकीर्तिके बनाये हुए न्यायबिन्दु नामक ग्रं- प्रसिद्धं भवति ततस्तदनुवाद्यम्, लक्षणं पुनरप्रसिद्धथऊपर टीका लिखनेवाले धर्मोत्तरका नाम विद्वानामे मिति तद्विधयम् । अज्ञातज्ञापन विधिरित्यभिधानात् । प्रसिद्ध है। प्रमाणपरीक्षा, अपोहप्रकरण, परलोक-. - सिद्धे तु लक्ष्यलक्षणभावे लक्षणमनूद्य लक्ष्यमेव वि. सिद्धि, क्षणभंगसिद्धि और प्रमाण ? ] विनिश्च यव्याख्या आदि ग्रंथ भी उनके बनाये हुए कहे जाते पास शत। धीयते इति । (स्याद्वादरत्नाकर, पृ. १०, ). (स्याद्वादरत्नाकर,पृ. १०, . हैं। म. म. सतीशचन्द्र विने अपने पूर्वोक्त इति- (२) साधो ! सौगत ! भूभर्तुर्धर्मकीनिकेतने। हास में (पृ. १३१) इन धर्मोत्तरका समय ई. स. व्यवस्थां कुरुषे नूनमम्थापितमहत्तमः॥ ८४७ के आसपास स्थिर किया है । यदि यह समय स हि महात्मा (धर्मकीर्तिः) विनिश्चये (न्यायविठीक है तो फिर हरिभद्र लिखित उक्त सूत्रके रच- निश्चये ) प्रत्यक्षमेकं, न्यायबिन्ती तु प्रत्यक्षात यिता धर्मोत्तर, इन प्रसिद्ध धर्मोत्तरसे भिन्न-कोई । द्वे अप्यप्रसाध्यैव तल्लक्षणानि म म । दूसरे ही प्राचीन धर्मोत्तर--होने चाहिए । क्यों कि शब्दानित्यत्वसिद्धये कृ कर * यमुपन्या :, हरिभद्रका देहविल 1८ ई० की वीं शताब्दीके तीसरे से पादमे हो चूका होगा यह हमने सप्रमाण सिद्ध पश्चात् तात्साद्धमाभदधानोऽपि न लाम्य तामनकरही दिया है। मन्यसे इति स्वाभिमानमात्रम् । अपि च प्रत्यक्षलबौद्ध मतमें धर्मोत्तर नामसे प्रसिद्ध दो आचार्य क्षणव्याख्यालक्षणे 'लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये' हो गये हैं ऐसा प्रमाण महान् जैन तार्किक विद्वान् इन्यादिना लक्षणस्यैव विधिमभिधित्से विधेरेवापरा वादी देवसूरिके स्याद्वादरत्नाकर नामक प्रतिष्ठित धान्न बुद्धः, यतो न्यायविनिश्चयटीकायां स्वार्थानुमातर्कग्रंथसे मिलता है। इस ग्रंथके प्रथम परि- नस्य लक्षणे ' तत्कथं त्रिरूपलिङ्गग्राहिण एव दर्शनम्य च्छेदके " स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् ।" इस नानुमानत्वप्रसङ्गः । इति पर्यनुयुञ्जान · एतदेव सादूसरे सूत्रकी व्याख्याने 'लक्ष्यलक्षणभाववाचक' मर्थ्यप्राप्त दशयति यद्नुमेयेऽर्थे ज्ञानं तत्स्वार्थमिति' शब्दोंके विधानाविधानकी मीमांसा करते हुए शुरू इत्यनुमन्यमानश्चानुमापयसि स्वयमेव लक्ष्यस्यापि विधिही में धर्मोत्तरके तद्विषयक विचारोंकी आलोचना की है । ग्रंथकर्ताने स्वयं इन धर्मोत्तरको, धर्मकीर्तिके " म् । स्पष्टमेवाभिदधासि च न्यायबिन्दुवृत्तौ एतस्यैव 'न्यायविनिश्चय' और न्यायबिन्दु' नामक प्रमाण- लक्षणे, 'त्रिरूपाच्च लिङ्गाद्यदनुमेयालम्बनं ज्ञानं ग्रंथोंके व्याख्याता बतलाये हैं और उनकी की हुई तत्स्वार्थमनुमानमिति । (देखो, न्यायविन्दुटीका,पिटर्सउन व्याख्याओंमेसे कुछ अवतरण भी उद्धृत किये नसम्पादित, पृ. २१) विनिश्चयटीकायामेव च पराहैं । फिर इन धर्मोत्तर को 'वृद्धधर्मोत्तरानुसा- र्थानुमानलक्षणे · त्रिरूपस्य लिइन्स्य यदाख्यानं तत्परी' (वृद्ध धर्मोत्तरके विचारोंका अनुसरण करने रार्थमनमानमिति ।' च व्याचक्षाण इत्यक्षुण्णं ते वैच. वाले ) तथा 'वृद्धसेवाप्रसिद्ध ' (वृद्ध [धोत्तर क्षण्यमिति । की सेवा करनेसे प्रसिद्धि पाने वाले) ऐसे विशेषणों ( स्याद्वादरत्नाकर, पृ. १०) से सम्बोधित कर इन्हें किसी वृद्ध धर्मोत्तरके अनुयायी बतलाये हैं। और अन्तमें इनके विचार (३ ) अपि च भवद्भवनसूत्रणासूत्रधारो धर्मकीविधानसे उन वृद्ध धर्मोत्तरके तद्विषयक विचारोंका तिरपि ' न्यायविनिश्चयस्याद्य-द्वितीय-तृतीय-परि. खण्डित होना बतला कर, इनके कथनको स्वमत- च्छेदेषु- प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तमिति ॥ १॥" Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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