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________________ अंक १] उनकी तीक्ष्ण समालोचना की है। उदाहरणके लिये ' वाक्यपदीय' और ' तन्त्रवार्तिक' मैसे निम्न लिखित स्थल ले लीये जाँय | वाक्यपदीयके ( पृ० १३२ ) दूसरे १२१ वां श्लोक इस प्रकार है: अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वगैः सममाहुर्गवादिषु ॥ कुमारिल भट्टने तन्त्रवार्तिकमें इस लोकको दो जगह (बनारस की आवृत्ति पृ. २५१ - २५४ ) उद्धृत किया है । यथा हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय । प्रकरण में 'यथाहु: ' अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वगैः सममाहुर्गवादिषु ॥ ' इति । यत्तु 'अपूर्वदेवतास्वर्गैः सममाहुः । ' इति, तत्राभिधीयते । वाक्यपदीयके प्रथम प्रकरणमेके ७ वें श्लोकका उत्तरार्द्ध, तन्त्रवार्तिक ( पृष्ठ २०९-१० ) में कुमारि - ने उद्धृत किया है और उसमें शब्दपरावर्तन कर भर्तृहरिके विचारका अवस्कन्दन किया है:यदपि केनचिदुक्तम् — ' तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते । ' इति तद्रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि वक्तव्यमासीत् । are प्रत्यक्षम्यार्थे शास्त्रात्तत्त्वावधारणम् । शास्त्रलोकस्वभावज्ञ ईदृशं वक्तुमर्हति ? ॥ --- अत एव लोकस्योत्तरार्द्ध वक्तव्यम् - 'तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति श्रोत्रेन्द्रियादृते नत्र कश्चिद्विप्रतिपद्यते बधिरेष्वेवमदृष्टत्वात् । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. का. बा. पाठकने अपने ' भर्तृहरि और कुमारिल' नामक निबन्धमें इस ऊपर लिखे गये प्रमाणाधारले निर्णीत किया है कि कुमारिल ई.स. की ८ वीं शताब्दी के पूर्व भाग में हुए होंगे । अध्यापक पाठक लिखते हैं कि- " मेरे विचारसे यह तो स्पष्ट है कि कुमारिलके समय मे व्याकरणशास्त्र के ज्ञाताओंमें भर्तृहरि भी एक विशिष्ट प्रमाणभूत विद्वान् माने जाते थे । भर्तृहरि ४७ जर्नल आव दि बॉम्बे बेंच रोयल एसियाटिक सोसायटी, पु. १८. पृ. २१३-२३८ । ४७ अपने जीवनकालमें तो इतने प्रसिद्ध हुएही नहीं होंगे कि जिससे पाणिनि-संप्रदायके अनुयायी, उन्हें अपने संप्रदायका एक आप्त पुरुष समझने लगे हों और अतएव पाणिनि और पतंजलिके साथ वे भी महान् ककी समालोचनाके निशान बने हो इसी कारण से हुएन त्सांग, जिसने ई. स. ६२९-६४५ के बीच भारत भ्रमण किया था, उसने इनका नाम तक नहीं लिखा, परंतु इत्सींग, जिसने उक्त लिखा है, वह लिखता है कि भारत वर्ष के पांचों समयसे आधी शताब्दी बाद आपना प्रवास वृत्त खण्ड में भर्तृहरि एक प्रख्यात वैयाकरणके रूपमें प्रसिद्ध हैं। इस विवेचनसे हम ऐसा निर्णय कर सकते हैं कि जिस वर्षमें तन्त्रवार्तिककी रचना हुई उसके और भर्तृहरिके मृत्युवाले ई.स. ६५० के बीचमें आधी शताब्दी बीत चुकी होगी । अतएव कुमारिल ई. स. की ८ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान होने चाहिए । " हरिभद्रने अपने अनेक ग्रन्थोंमें मीमांसा दर्शनकी आलोचना- प्रत्यालोचना की है। शास्त्रवार्ता- समु के १० वें प्रकरणमें मीमांसक प्रतिपादित 'सर्वज्ञनिषेध' पर विचार किया गया है। उसमें पूर्वपक्ष में कुमारिल भट्टके मीमांसा - श्लोकवार्तिक के - ' प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणत ॥ इस श्लोकका, ' शास्त्रवार्तासमुच्चय' ( उक्त प्रकरण में के ४ र्थ श्लोक ) के ' प्रमाणपञ्चकाऽवृत्तस्तत्राभाव प्रमाणती । ' इस श्लोकार्द्धमें केवल अर्थशः ही नहीं परंतु शब्दशः अनुकरण किया हुआ स्पष्ट दिखाई देता है । इसी तरह, मीमांसा - श्लोकवार्तिक के चोदना- सूत्र वाले प्रकरण में जहां पर वेदोंकी स्वतः प्रमाणता स्थापित करनेकी मीमांसा की हुई है- निम्न लि खित श्लोकार्द्ध कुमारिलने लिखा है: ' तस्मादाला कवद् वेदे सर्वसाधारणे सति । ' मीमांसा कार्तिक, पृ. ७४३ ४९ मीमांसा लकवार्तिक, पृष्ठ ४७३ । ५० शास्त्रवार्तासमुच्चय, ( देवचंद ला. पुस्तकोद्धार फंडसे मुद्रित ) पृष्ठ ३४९ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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