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________________ उलुख - - - ल ७१. - जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ लिये, इन विद्वानोंके समयका विचार, हरिभद्र के अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन जायते ॥४५ समय-विचारमें बडा उपयोगी हो कर उसके द्वारा (२) उक्तं च (भर्तहरिणा) हम ठीक ठीक यह जान सकेगे कि हरिभद्र किस यथानवाकः श्लोको वेति ।, re समयमें हुए होने चाहिए। (अनेकान्तजयपताका, अमदाबाद पृष्ठ. ४१.) ऊपर जो आचार्यनामावली दी है उसमें वैयाक- चीनदेश निवासी प्रसिद्ध प्रवासी इत्सींग ई. रण भर्तृहरिका भी नाम साम्मालित है । अनेकान्त- स. की ७ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें भारतमें भ्रमण जयपताकाके चतुर्थ अधिकारमें, शब्द ब्रह्मकी मी- करनेको आया था। उसने अपने देशमें जा कर मांसा करते हुए दो तीन स्थलपर हरिभद्रने इनका ई. स. ६९५ में अपना भ्रमण-वृत्तान्त लिखा। इस नामोल्लेख किया है और इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्य में, उसने, उस समय भारतवर्ष व्याकरणशास्त्रका पदीयमेसे कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं । यथा-- अध्ययन-अध्यापन जिस रीतिसे प्रचलित था (१) आह च शब्दार्थतत्त्वविद् (भर्तृहरिः)-४४ उसका वर्णन लिखा है और साथ में मुख्य मुख्य वैयाकरणोंके नाम भी लिखे हैं । भर्तृहीरेक विषय'वाग्रूपता चेदुकामेदवबोधस्य शाश्वती । में भी उसने लिखा है कि ये एक प्रसिद्ध वैयान प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥ करण थे, और इन्होंने ७०० श्लोककी संख्या वाले न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । वाक्यपदीय ग्रंथकीरचना की है। इस ग्रंथका जिकर करके उस प्रवासीने यह भी लिखाहै कि इसके ४४अनेकान्तजयपताका ऊपर हरिभद्र ने स्वयं एक संक्षिप्त काकी ई. स. ६५० में मृत्यु हो गई है। इसींगके परंतु शब्दार्थका परिस्फुट करने वाली टीका लिखी है। [इस विरुद्धम आज तक कोई विशेष प्रमाण टीका के अन्तमें ऐसा उल्लेख है--कृतिधर्मतो जा (या)- उपलब्ध नहीं हुआ इस लिये इसे सत्य मान लेने में किनीमहत्तरासूनोराचार्यश्रीहरिभद्रस्य । टीकाप्येषा .कोई हरकत नहीं है। वर्णिका प्राया भावार्थमात्रावेदिनी नाम तस्यैवेति महान् मीमांसक कुमारिलने 'तंत्रवार्तिक' के इस टीकामें मूलग्रंथमें जिन जिन विद्वानोंके विचारोंका-अव- प्रथम प्रकरणमें शब्दशास्त्रियोंकी खूब खबर ली है। तरणाका संयह किया गया है उन सबके प्रायः नाम लिख उसमें पाणिनि, कात्यायन और पतंजलीके साथ दिये।मल ग्रंथमें उन्होंने कहीं पर भी किसी के मय साथ भहतारक ऊपर भा आक्षेप किये गये है। नाम का उल्लेख न कर के जिस शास्त्रका जो पारंगत ज्ञाता 'वाक्यपदीय ' मेसे अनेक श्लोकोको उद्धृत कर था है उसके सुबक किसी विशेषणसे अथवा और किसी प्रसि- ४५ काशीमे मुद्रित वाक्यपदीयके प्रथमकाण्डमें ये द उपनामसे उस उस विद्वान का स्मरण किया है। फिर दोनों श्लोक (पृष्ट ४६-७) पूर्वापर के क्रमसे अर्थात आगे टीकामें उन सबका स्पष्ट नामोल्लेख भी कर दिया है। कहीं पीछे लिखे हुए मिलते हैं। पिछले श्लोकके ४ र्थ पाटमें मला मानी 'सर्वशब्देन भासते' ऐसा पाठ भेद भी उपलब्ध है। अवतरण उद्धृत कर दिया है और फिर टिकामें उसी तरह। प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वान् विद्यानन्दी ने 'अष्टसहस्री '[पृ. नाम लिख दिया है । यही क्रम 'शास्त्रवातासमुच्चय' १३० ] में और प्रभाचंद्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड' [पृ. ११1 में भी इन दोनों श्लोकोंको वाक्य पदीयके कमसे की स्वोपज्ञ टीकामें भी उपलब्ध होता है। इस क्रमानुसार, उदधत किये हैं। वादी देवसरिने भी 'स्याद्वादरत्नाकर' ऊपर जो 'शब्दार्थतत्त्वविद्' विशेषण है उसका परिस्फुट टीका (प.४३) में इन को दिया है। में 'शब्दार्थतत्त्वविद् भर्तृहरिः' ऐसा किया है । अर्थात् ४६ वाक्यपदीय, पृ. ८३ में यह पूराश्लोक इस प्रकार है इससे 'शब्दार्थतत्वविद् ' यह विशेषण भर्तृहरि का है, यथानुवाकः श्लोको वा सोढत्वमपगच्छति। ऐसा समझना चाहिए। आगे पर जहां कहीं हम टीकामें आवृत्त्या, न तु स ग्रन्थः प्रत्यावृत्त्या निरूप्यते ॥ से ऐसे मुख्य नामों को उद्त करें वहां पर पाठक इस ४७ देखो, प्रो. मॅक्ष मुलर लिखित India: what it नाट को लक्ष्यमें रक्खें। can teach us १, पृष्ठ २१० । Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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