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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ संगति कैसे लगाई जाय ! [पाठक यहां पर यह गत, याने भविष्यकालमें होनेवाला मेरा समग्र वृत्तांबात ध्यान रखें कि सिद्धर्षिने इस सारे प्रस- जान लिया था। यह बात हमारी स्वसंवेदन (स्वाअनामें जिस धर्मबोधकर गुरु का वर्णन दिया है वह नुभव ) सिद्ध है।' हरिभद्रसूरिको ही लक्ष्य कर है । क्यों कि, प्रश. इस उल्लेख पर किसी प्रकार की टीकाकी जरूर स्तिमें यह बात खास तौरसे, उन्होंने लिख दी है। त नहीं है। स्पष्टरूपसे सिद्धर्षि कहते हैं कि, मेरेसे देखो ऊपर पृष्ठ २९ पर, हरिभद्रकी प्रशंसामें कालव्यवहित अर्थात् पूर्वकालमें हो जानेवाले धर्म. लिखे गये तीन श्लोकों में का पहला श्लोक ।] बोधकर सूरि (जो स्वयं हरिभद्र हो है ) ने जो इस शङ्काका उन्मूलन करनेके लिये और प्रकृत अनागत याने भविष्यकालमें होनेवाला मेरा समय उपमानकी अर्थ सङ्गति लगानेके लिये उस का- वृत्तान्त जान लिया था उसका कारण यह है कि न्तदर्शी महर्षिने अपने अनुपम प्रातिभ कौशलसे विशिष्टज्ञानी थे। हरिभद्र सूरि सचमुच ही निम्न लिखित कल्पनाका निर्माण कर अपूर्व बुद्धि- सिद्धर्षिके जीवनके बारेमें कोई भविष्यलेख लिख चातुर्य पतलाया है। वे लिखते हैं कि- गये थे या कथागत उपमितार्थकी संगतिके लिये 'सध्यानबलेन विमलीभूतात्मानः परहितैकनि- सिद्धर्षिको यह स्वोभाषित कल्पना मात्र है, इस रतचित्ता भगवन्तो ये योगिनः पशन्त्येव देशकालव्य- यातके विचारमेकी यहां पर कोई आवश्यकता नहीं वहितानामपि जन्तनां छदमस्थावस्थायामपि वर्तमाना है। यहां पर इस उल्लेखकी उपयोगिता इसी दृष्टिदत्तोपयोगा भगवदवलोकनाया योग्यताम् । पुरोवर्तिनां : " से है कि, इसके द्वारा हम यह स्पष्ट जान सके हैं। पुनः प्राणिनां भगवदागमपरिकर्मितमतयोऽपि योग्य- किन्तु पूर्वकालीन हैं। " कि हरिभद्रसूरि सिद्धर्षिके समकालीन नहीं हैं तां लक्षयन्ति, तिष्ठन्तु विशिष्टज्ञाना इति । ये च मम इस प्रकार सिद्धर्षिके निजके उल्लेखसे तो हरिसदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव, भद्रसूरिकी पूर्वकालीनता सिद्ध होती ही है, परंतु यतः कालव्यवहितरनागतमेव तैतिः समस्तोऽपि इस पूर्वकालीनताका विशेष साधक और आधिक मदीया वृत्तान्तः । स्वसंवेदनसिद्धमतदस्माकामति।' स्पष्ट प्रमाण प्राकृत साहित्यके एक मुकुटमणिसमान , उप० ए० ८० । 'कुघलयमाला' नामक कथाग्रन्थमेसे भी मिलअर्थात्-'सद्ध्यानके बलसे जिनका आमा ता है । यह कथा दाक्षिण्यचिन्हके उपनामवाले निर्मल हो गया है और जो परहितमें सदा तत्पर उद्योतनसरिने बनाई है। इसकी रचना-समाति रहते हैं ऐसे योगी महात्मा, छद्मस्थावस्था यांने श शकसंवत् सात सौ के समाप्त होनेमें जब एक दिन असर्वदशामें भी विद्यमान हो कर, अपने उपयोग न्यूम था तब, अर्थात् शकसंवत् ६९९ के कृष्ण (मान ) द्वारा, देशान्तर और कालांतर में होनेवाले १४ के दिन-- हुई थी। यह उल्लेख कोने, स्वयं प्राणियोंकी, भगवान के दृष्टिपातके योग्य ऐसी.यो. प्रशस्तिमें निम्न प्रकारले किया हैम्यताको जान लेते हैं। तथा इसी तरह जिनकी '........ अह चोदसीए चित्तस्स किण्हपक्खम्मि। मात भगवानके आगमोंके अध्ययनसे विशुद्ध हो- निम्मविया बोहकरी भन्वाणं होउ सन्वाणं ॥' गई है वैसे आगमाभ्यासी पुरुष भी इस . x _ x x x प्रकारकी योग्यताको जान सकते हैं तो ३८ राजपूताना और उत्तर भारतमें पूर्णिमान्त मास फिर विशिष्टसानियों ( श्रुतज्ञानियों ) की तो माना जाता है । इस लिये यहां पर इसी पूर्णिमान्त मासको बात ही क्या है? । और जो मेरेको सदुपदेश अपेक्षासे चैत्रकृष्णका उल्लेख किया हुआ है। दक्षिण भारतदिनेवाले आचार्य महाराज हैं वे तो विशिष्टज्ञानी की अपेक्षासे फाल्गुनकृष्ण समझना चाहिए । क्यों कि यहां ही हैं। इस लिये 'कालसे व्यवहित' याने कालां- पर अमान्त मास प्रचलित है। गुजरात में भी यही अमान्त तरम (पूर्वकालमें ) होने पर भी, उन्होंने 'अना- मार प्रचलित है। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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